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वर्धा जिल्हा
Posted by chandanse in Development, Marathi on June 20, 2011
तहसिल | एकूण क्षेत्रफळ | जंगल व्याप्त क्षेत्र | ओलीत क्षेत्र | कोरडवाहू क्षेत्र | बिगर शेती वापराखालील जमीन | लागवडी लायक नसलेली जमीन |
आर्वी | 67932.00 | 4337.97 | 2098.68 | 42604.01 | 9931.46 | 8952.53 |
आष्टी | 31570.00 | 3553.43 | 1855.02 | 16456.26 | 2175.89 | 7481.59 |
कारंजा | 55872.00 | 7370.32 | 2554.25 | 35564.06 | 5227.02 | 5138.75 |
सेलू | 58857.00 | 3602.73 | 4449.07 | 36388.75 | 7014.01 | 7244.21 |
वर्धा | 69366.00 | 299.72 | 2773.98 | 47321.19 | 9163.43 | 9379.27 |
देवळी | 59318.00 | 108.79 | 1175.41 | 43761.39 | 7500.74 | 6911.14 |
हिंगणघाट | 80165.00 | 1711.15 | 2484.54 | 61492.52 | 5740.11 | 8606.83 |
समुद्रपुर | 79714.00 | 2709.75 | 3273.20 | 58016.47 | 6148.21 | 9668.95 |
गहू | जवार | बाजरी | हरभरा | तूर | मूग | उडीद | मटकी | ऊस | मिरची | फळे व भाजीपाला | कापूस | भुईमूग | तिळ | सोयाबीन | |
वर्धा | 1029 | 3175 | 24 | 642 | 2209 | 63 | 40 | 19 | 18 | 11767 | 1545 | 11767 | 423 | 42 | 3532 |
सेलु | 2420 | 3661 | 5 | 1549 | 2491 | 168 | 227 | 29 | – | 10685 | 2355 | 10685 | 2227 | 43 | 11353 |
समुद्रपूर | 1179 | 10394 | 15 | 483 | 5649 | 142 | 12 | 20 | 365 | 25295 | 1288 | 25295 | 216 | 64 | 4161 |
हिंगणघाट | 3312 | 5246 | – | 1569 | 4919 | 56 | 11 | 30 | 1577 | 21343 | 1194 | 21343 | 202 | 93 | 8130 |
देवळी | 2704 | 12200 | – | 915 | 6315 | 123 | – | 367 | 623 | 30118 | 1035 | 30118 | 41 | 228 | 3936 |
आर्वी | 79 | 6659 | 43 | 1396 | 7437 | 171 | – | 81 | – | 27048 | 55 | 27048 | 21 | 104 | 6684 |
आष्टी | 402 | 6341 | 13 | 3175 | 8314 | 84 | 16 | 117 | 11 | 36967 | 132 | 36967 | 3 | 384 | 15181 |
करंजा | 2374 | 7321 | – | 7104 | 6153 | 10 | 91 | 79 | 133 | 26718 | 934 | 26718 | – | 243 | 23619 |
तहसिल | कुट्रंबाची संख्या | लोकसंख्या | अनुसुचित जाती | अनुसुचित जमाती | ||||||
एकूण | पुरुष | स्रिया | एकूण | पुरुष | स्रिया | एकूण | पुरुष | स्रिया | ||
आर्वी | 23,361 | 102,923 | 53,073 | 49,850 | 13,469 | 6,919 | 6,550 | 19,855 | 10,194 | 9,661 |
आष्टी | 16,156 | 73,594 | 38,037 | 35,557 | 8,869 | 4,647 | 4,222 | 9,333 | 4,805 | 4,528 |
कारंजा | 19,735 | 88,720 | 45,592 | 43,128 | 7,648 | 3,954 | 3,694 | 13,454 | 6,925 | 6,529 |
सेलू | 26,448 | 120,026 | 61,720 | 58,306 | 12,586 | 6,548 | 6,038 | 20,356 | 10,442 | 9,914 |
वर्धा | 41,927 | 187,865 | 97,174 | 90,691 | 23,777 | 12,221 | 11,556 | 20,846 | 10,880 | 9,966 |
देवळी | 23,263 | 102,814 | 52,977 | 49,837 | 17,981 | 9,271 | 8,710 | 15,315 | 7,813 | 7,502 |
हिंगणघाट | 26,730 | 120,136 | 62,035 | 58,101 | 15,448 | 8,002 | 7,446 | 14,483 | 7,510 | 6,973 |
समुद्रपुर | 25,343 | 115,617 | 60,002 | 55,615 | 12,367 | 6,482 | 5,885 | 19,124 | 9,940 | 9,184 |
महिना | पाऊस (मिमी.) | पीइटी (मिमी.) | एइटी (मिमी.) | डब्ल्यूडी (मिमी.) | डब्ल्यूएस (मिमी.) |
जानेवारी | 18.40 | 810.00 | 19.10 | 790.90 | 0.00 |
फेब्रुवारी | 8.99 | 100.29 | 8.99 | 91.30 | 0.00 |
मार्च | 13.14 | 144.60 | 13.15 | 131.45 | 0.00 |
एप्रिल | 6.09 | 170.90 | 6.09 | 164.81 | 0.00 |
मे | 6.98 | 201.70 | 6.98 | 194.72 | 0.00 |
जून | 185.70 | 169.60 | 169.60 | 0.00 | 0.00 |
जुलै | 222.91 | 110.30 | 110.30 | 0.00 | 0.00 |
ऑगस्ट | 225.88 | 102.10 | 102.10 | 0.00 | 52.49 |
सप्टेंबर | 145.16 | 107.00 | 343.20 | 726.80 | 0.00 |
ऑक्टोबर | 58.11 | 112.20 | 58.57 | 53.63 | 0.00 |
नोव्हेंबर | 10.76 | 86.70 | 11.24 | 75.46 | 0.00 |
डिसेंबर | 0.84 | 73.20 | 1.15 | 72.05 | 0.00 |
एकूण | 902.96 | 2,188.59 | 850.47 | 2,301.12 | 52.49 |
महिना | पाऊस (मिमी.) | पीइटी (मिमी.) | एइटी (मिमी.) | डब्ल्यूडी (मिमी.) | डब्ल्यूएस (मिमी.) |
जानेवारी | 18.40 | 810.00 | 19.10 | 790.90 | 0.00 |
फेब्रुवारी | 8.99 | 100.29 | 8.99 | 91.30 | 0.00 |
मार्च | 13.14 | 144.60 | 13.15 | 131.45 | 0.00 |
एप्रिल | 6.09 | 170.90 | 6.09 | 164.81 | 0.00 |
मे | 6.98 | 201.70 | 6.98 | 194.72 | 0.00 |
जून | 185.70 | 169.60 | 169.60 | 0.00 | 0.00 |
जुलै | 222.91 | 110.30 | 110.30 | 0.00 | 0.00 |
ऑगस्ट | 225.88 | 102.10 | 102.10 | 0.00 | 52.49 |
सप्टेंबर | 145.16 | 107.00 | 343.20 | 726.80 | 0.00 |
ऑक्टोबर | 58.11 | 112.20 | 58.57 | 53.63 | 0.00 |
नोव्हेंबर | 10.76 | 86.70 | 11.24 | 75.46 | 0.00 |
डिसेंबर | 0.84 | 73.20 | 1.15 | 72.05 | 0.00 |
एकूण | 902.96 | 2,188.59 | 850.47 | 2,301.12 | 52.49 |
फळरोपवाटीका
Posted by chandanse in Agriculture, Development, Farming, Marathi on June 20, 2011
शेतकरी मासिक योजना
Posted by chandanse in Agriculture, Development, Marathi on June 20, 2011
समग्र आवास योजना
Posted by chandanse in Development, Marathi on June 20, 2011
1. उद्दिष्ट :
समग्र आवास योजनेचे मूलभूत उद्दिष्ट ग्रामीण क्षेत्रांमधील एकूण प्रकृति व लोकांचा पसरण्याचा गुणधर्म सुधारणे हे आहे. योजनेचे विनिर्दिष्ट ध्येय कामांकरिता एक केंद्राभिमुखतेची तरतूद करणे हे आहे. आतापर्यंत विविध कामे उदा. घरांचे बांधकाम, स्वच्छता सुविधा व पिण्याच्या पाण्याच्या योजना इत्यादी वेगवेगळ्या प्रकारे हाती घेण्यात आली आहेत व तंत्रशास्त्र, आयइसी व नवीन कल्पनांच्या योग्य व प्रमाणित अभिक्रमाद्वारे त्यांचे प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करण्यात आले आहे.
2. व्याप्तिक्षेत्र :
योजना योग्य वेळी संपूर्ण देशामध्ये कार्यान्वित करणे प्रस्तावित आहे. तथापि, पहिल्या टप्प्यामध्ये, योजना 24 राज्यांमधील 25 जिल्ह्यांच्या प्रत्येकी एका गटामध्ये व एका केंद्रशासित प्रदेशामध्ये कार्यान्वित करणे प्रस्तावित आहे. हे गट व जिल्हे ग्रामीण पाणी पुरवठा व स्वच्छतेमध्ये (परिशिष्ट I) संस्था विषयक समाज सहयोगाकरिता चिन्हांकित 58 जिल्हे सोडून राज्य सरकारांसोबत विचार विनिमयामध्ये निवडण्यात येतील.
3. योजना घटक :
सध्या काही ग्रामीण गृहनिर्माण योजना देशामध्ये कार्यान्वित करण्यात येत आहेत. यामध्ये इंदिरा आवास योजना, प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना-ग्रामीण आवास, ग्रामीण निर्माण केंद्रांकरिता उधार-सह-अर्थसहाय्य योजना, हुडकोची कर्ज-आधारित ग्रामीण गृहनिर्माण योजना, राष्ट्रीय गृहनिर्माण बँकेची सुवर्ण महोत्सवी ग्रामीण गृहनिर्माण वित्त योजना, वित्तीय संस्था व राज्य पुरस्कृत ग्रामीण गृहनिर्माण योजनांचा समावेश आहे. एक पहिले पाऊल रूपात ह्या योजना डिझाइन्स इत्यादी करिता उच्चतम वाटप, राज्य सरकार व जिल्हा प्रशासनांसोबत जेथे शक्य असेल तेथे व ओळख पटविलेल्या गटांमध्ये ह्या योजनांना मजबूती प्रदान करणे प्रस्तावित आहे. प्रत्येक निवडक गटांमध्ये एक ग्रामीण निर्माण केंद्र स्थापित करणे प्रस्तावित आहे. ही निर्माण केंद्रे खर्च-प्रभावी तंत्रशास्त्र, सामान, डिझाइन इत्यादीच्या प्रसाराशिवाय बांधकाम खंडामध्ये कामात गुंतलेल्या ग्रामीण कारागीरांकरिता प्रशिक्षणाची तरतूद करणे व खर्च-प्रभावी बांधकाम सामानांकरिता उत्पादन केंद्रांच्या रुपात कामकाज करतील. तसेच ह्या गटांमध्ये नवीन ग्रामीण गृहनिर्माण प्रकल्प हाती घेणे प्रस्तावित आहे, जे खर्च प्रभावी तंत्रशास्त्र व नवक्लुप्तिच्या प्रचालन प्रसारामध्ये मदत व प्रात्यक्षिक किंमत निर्दिष्ट करतील. ग्रामीण निर्माण केंद्रे व नवीन प्रकल्प ग्रामीण निर्माण केंद्रांची वर्तमान योजना व ग्रामीण गृहनिर्माण व वसतिस्थान विकासाचा नवीन प्रवाह अंतर्गत हाती घेण्यात येतील.
गृहनिर्माण साठा व गृहनिर्माण वित्तची उपलब्धता सुधारण्याकरिता ग्रामीण विकास मंत्रालयाची उधार-सह-अर्थसहाय्य योजना, राष्ट्रीय गृहनिर्माण बँकेची सुवर्ण महोत्सवी ग्रामीण गृहनिर्माण वित्त योजना, हुडकोच्या ग्रामीण गृहनिर्माण योजना व राज्य ग्रामीण गृहनिर्माण योजना उदार व पर्याप्त गृहनिर्माण वित्तच्या तरतूदी करिता वाणिज्यिक बँका व वित्तीय संस्थांसोबत विकसित करण्यात येत आहेत. समस्या व कोंडी मधून बाहेर पडण्याकरिता प्रयत्न करण्यात येईल, जो योजनांच्या कार्यान्वयनांमध्ये दिसून येईल.
राजीव गांधी राष्ट्रीय पेय जल मंडळाने लोकांच्या सहयोगाने पाणी पुरवठा व स्वच्छता सुविधांच्या त्वरित तरतूदी करिता हे जिल्हे अगोदरच निवडले आहेत. ह्या जिल्ह्यांकरिता पेय जल व स्वच्छता योजने अंतर्गत ठेवलेले विशेष वाटप पेय जल व स्वच्छतेच्या पर्याप्त व प्रमाणित तरतूदीकरिता वापरण्यात येईल. इंदिरा आवास योजने अंतर्गत, स्वच्छताविषयक शौचकूप करिता एक तरतूद व स्वच्छता विषयक शौचकूप बांधकाम आणि तसेच त्याच्या चांगल्या प्रकारे उपयोगाकरिता लाभाधिका-यांना शिक्षित करण्यात येईल. राजीव गांधी राष्ट्रीय पेय जल मंडळाचा ह्या जिल्ह्यांमध्ये स्वच्छताविषयक बाजारपेठ स्थापित करण्याचा प्रस्ताव आहे व हे गृहनिर्माण कार्यक्रमांसोबत पेय जल व स्वच्छता योजनांच्या एककेंद्राभिमुखतेकरिता अतिरिक्त गति प्रदान करील. ग्रामीण विकास मंत्रालयाच्या साधारण निधींमधून आयइसी करिता प्रत्येक निवडक जिल्ह्याला रु. 5 लाखाची तरतूद करणे प्रस्तावित आहे.
जवाहर ग्राम समृद्धी योजना (जेजीएसवाय) व सेवायोजन विमा योजना (इएएस) अंतर्गत उपलब्ध निधी एका समन्वित व त्वरित रीतीमध्ये रस्ते, जलनि:सारण इत्यादीचा विकास सुनिश्चित करण्याकरिता एकमेकांशी जुळवून घेण्यात येईल. पर्यावरणीय सुधारणेकरिता बिगर-संकेतमान्य ऊर्जा साधनसंपत्तिचे राज्य सरकारचे वन व उद्यानविद्या विभागांजवळ वर्तमान साधनसंपत्ति आहे. ही फक्त चांगल्या पर्यावरणाचीच नाही, तर लोकांकरिता आर्थिक लाभांची सुद्धा तरतूद करतील. पेय जलाचे 90 टक्के स्रोत भूजलावर अवलंबून आहेत. ह्याचा विचार करता, भारत सरकारच्या पाणलोट विकास कार्यक्रमा अंतर्गत ह्या गटांमध्ये व्यापक पाणलोट विकास हातात घेणे प्रस्तावित आहे. ही भूजलाची उपलब्धता व तसेच पेय जलाची उपलब्धता सुधारेल.
संघटना उदा. एनआयआरडी, हुडको इत्यादी मार्फत खंड व्यावसायिकांकरिता कौशल्य सुधारण्याकरिता विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करणे प्रस्तावित आहे. अतिरिक्त मध्ये, संपूर्ण वसतिस्थान विकास हातात घेण्याकरिता प्रत्येक गटासाठी रु. 20 लाखाच्या अतिरिक्त केंद्रीय सहाय्याची तरतूद प्रस्तावित आहे. हा निधी लोकांच्या 10% देणगी सोबत लोकांच्या सहयोगामार्फत उपयोगात आणण्यात येईल. वसतिस्थान विकास हातात घेण्याकरिता कामे ग्रामसभा द्वारे अभिज्ञात करण्यात येतील. ही कामे संपूर्ण वसतिस्थान विकासाकरिता पेय जल व स्वच्छता सुविधांच्या तरतूदीच्या उद्दिष्टासोबत क्षेत्रांमध्ये, जेथे ह्या निवडक गटांच्या गावांमध्ये संसाधन व समाज सुविधांची उणीव आहे, विनिर्दिष्ट रुपात हातात घेण्यात येतील.
4. कार्यान्वयन :
ह्या योजनेचे विविध घटक विभिन्न मार्ग विभाग उदा. डीआरडीए गृहनिर्माण सार्वजनिक आरोग्य, कृषि, वन इत्यादी द्वारे कार्यान्वित करण्यात येतील. ह्याचा विचार करता, हे आवश्यक होईल की, योजना जिल्हाधिकारी यांचेद्वारे पर्यवेक्षीत, समन्वित व संनियंत्रित करण्यात यावी. प्रत्येक जिल्हा रु. 5 लाखाचा विशेष आयइयु निधी व रु. 20 लाखाचा वसतिस्थान विकास निधी डीआरडीए, डीआरडीए/जिल्हा परिषद व सार्वजनिक आरोग्य विभागामार्फत सादर केला जाईल, ज्या मुख्य कार्यान्वयन एजंसीज आहेत. जिल्हा परिषद, गट समिति व ग्राम पंचायत ह्या योजनेच्या कार्यान्वयनामध्ये पूर्णत: गोवलेली राहील.
5. निधी स्वरुप :
गृहनिर्माण, पेय जल, स्वच्छता इत्यादीच्या वर्तमान योजना साधारण निधी स्वरूपाचे पालन करतील. तथापि, रु. 25 लाखाचे विशेष सहाय्याची (आयइसीकरिता रु. 5 लाख व वसतिस्थान विकासाकरिता रु. 20 लाख) पोट (वेन्ट्रल) सरकार द्वारे पूर्णत: तरतूद करण्यात येईल. राज्य सरकारच्या इतर कोणत्याही एजंसीकडून देणगी इष्ट राहील. ह्याच्या अतिरिक्त मध्ये लोकांकडून वस्तू व रोखमध्ये प्राप्त देणगी दीर्घ कालावधी प्रमाणीकरण व सार्वजनिक गोवणूकीकरिता अधिक महत्त्वपूर्ण राहील.
7. संनियंत्रण व मूल्यमापन :
योजना राज्य सरकार/जिल्हा प्राधिकरणांमार्फत ग्रामीण विकास मंत्रालयाद्वारे संनियंत्रित केली जाईल. योजनेच्या पहिल्या टप्प्याच्या कार्यान्वयना नंतर वसतिस्थान विकासाकरिता योजने अंतर्गत हाती घेतलेल्या विविध कामांच्या परिणामांचा अभ्यास करण्याकरिता मूल्यमापन करण्यात येईल. राज्य सरकारांनी प्रपत्र अनुसार योजनेच्या कार्यान्वयनावर सहामाही प्रगति अहवाल पाठवावेत.
स्वर्णजयंती
Posted by chandanse in Agriculture, Development, Farming on June 20, 2011
ग्रामीण गृहनिर्माण
Posted by chandanse in Development on June 20, 2011
६. वाटपाचे मापदंड :
- एक मासिक प्रगति अहवाल अनुवर्ती महिन्याच्या 10 तारीखेला किंवा पूर्वी प्रपत्र-I मध्ये निर्दिष्ट अनुसार पुरवावा.
- एक विस्तृत वार्षिक प्रगति अहवाल पुढील वित्तीय वर्षाच्या 25 एप्रिल रोजी किंवा पूर्वी प्रपत्र-II मध्ये निर्दिष्ट अनुसार पुरवावा.
- कार्यान्वयन एजंसी द्वारे उपयोग प्रमाणपत्र (प्रपत्र IV)
- कार्यान्वयन एजंसी द्वारे मागील वर्षाकरिता लेखापरीक्षा अहवाल.
- बिगर-अपहार प्रमाणपत्र
- प्रगति व संनियंत्रण अहवाल
- राज्य अंशदान प्रदान करणे
- अनुज्ञेय प्रारंभिक शिल्लक मागील वर्षांच्या वाटणीच्या 15% पेक्षा जास्त नसावी. प्रारंभिक शिल्लक जर ह्या मर्यादे पेक्षा जास्त असेल तर, केंद्रीय हिस्सा (अतिरिक्त रक्कमेच्या 3 वेळा) पुढील हप्ता प्रदान करण्याच्या वेळी कापून घेण्यात येईल.
- वेळोवेळी लादण्यात आलेली इतर कोणतीही अट ह्याच्या सोबत पाळण्यात येईल.
किसान क्रेडिट कार्ड योजना
Posted by chandanse in Agriculture, Development, Farming, Marathi on June 20, 2011
१. शेतीसाठी खेळते भांडवल पुरवणारी बँकेची योजना
२. सर्व प्रकारच्या पीक लागवडी / जोपासनेची तरतूद उदा. भाजीपाला, फुले, नगदी पिके, भुसार पिके, गळीत पिके, तृणधान्ये, फळबागा इत्यादी.
३. नगदी स्वरुपात कर्ज वाटप. रु. ५०,०००/- हजारापर्यंत गपाण खर्च नाही.
४. १० ते २० % आकस्तिक खर्चाची तरतूद.
५. शेतकन्याला पतपुस्तिका व चेक बुक दिले जाते.
६. कँश क्रेडिट मर्यादा ठरवून शेतकन्याला दिलेल्या मर्यादित खात्यांत व्यवहार करता येतो.
७. वैयक्तिक अपघात विमा योजनेसाठी पात्र. पिकविमा उपलब्ध.
८. कागदपत्रांचे अवडंबर नाही. जमिनीवर नाममात्र रकमेचा बोजा चढविला जातो.
९. दरवर्षी खात्याचा आढावा घेण्याची सुविधा उपलब्ध. गरजेप्रमाणे पत मर्यादा वाढविली जाते.
१०. सरल व्याज.
किसान समाधान क्रेडीट कार्ड योजना
१. शेती कर्जाची कमीत कमी २ वर्षे नियमितपणे परतफेड करणारे सर्व पात्र सधन शेतकरी.
२. कर्ज मर्यादा सध्याच्या एकूण वार्षिक उत्पत्राच्या ५ पट किंवा तारणसाठी घावयाच्या जमिनीच्या किंमतीच्या ५० % दोन्हीपैकी कमी असणारी रक्कम.
३. एकूण कर्ज रकमेच्या १० % जास्तीत जास्त रु ५०, ०००/- आकस्तिक खर्चाची वाढीव तरतूद
१. कर्ज रकमेत रकमेत शोतीसाठी कमी मुदतीचे खेळते भांडवल व मध्यम / दिर्घ मुदतीच्या विकास कर्ज रकमांचा समावेश.
२. पात्र शेतकच्यांना समाधान कार्ड, पतपुस्तीका व चेकबुक पुरविले जाते.
३. खालील विमा योजनांचे संरक्षण
अ. वैयक्तिक अपघात विमा योजना
ब. राष्ट्रीय कृषी विमा योजना (एच्छिक)
४. तारणपोटी जमीनीवर बँकेच्या कर्जाचा इकराराने बोजा चढविला जातो,
कृषी यांत्रिकीकरण योजने अंतर्गत विशेष सवलती
१. नवीन किंवा जूना ट्रँक्टर खरेदीसाठी २५ अशवशक्ती पर्यंतचाया ट्रँक्टरसाठी फक्त ८ अकर बारमाही बागायत जमीन आवश्यक.
२. पॉवर टिलरसाठी फक्त ३ त ५ एकर बारमाही बागायत जमीन आवश्यक.
३. ट्रँक्टर व पॉवर टिलरसाठीच्या रु. ५०,०००/-पर्य़ंतच्या कर्जिस मार्जिन रकमेची आवश्यकता नाही. रु.५०,०००/- पुढील कर्जास फक्त १५ ते २० % मार्जिन रक्कम.
४. शासनाकडून अनुदान मिळाळ्यास वेगळया मार्जिन रकमेची आवश्यकता नाही.
५. तारणसाठी जमिनीचे गहाणखत करणे आवश्यक.
६. बँकेच्या काही ट्रँक्टर व पॉवर टिलर कंपन्यांशी सामंजस्त करार. त्यानुसार शेतकच्यांना विशेष कँश डिस्काउंट व काही विना शुल्क सव्हिसेस उपलब्ध.
७. परतफेड – नविन ट्रँक्टर … १ वर्षात, पॉवर टिलर … ७ वर्ष
शेतकच्यासाठी शेत जमीव खरेदी योजना
१. नाबार्डच्या व्याख्येप्रमाणे लहान, अति लहान बटाईने किंवा कुळाने शोती करणारे शोतकरी ह्ग योजनाचा फाचदी घेऊ शकतात.
२. जमीन खरेदी व विकास खर्चसाठी जास्तीत जास्त रुपये १० लाख कर्ज उपलब्ध.
३. रु. ५०,०००/- पर्यंतच्या कर्जास मर्जिन आवश्यक नाही. त्यापुढील कर्जास कमीत कमी १० %
४. तारण म्हणून विकत घेतलेल्या जमीनीचे गहाणखत.
५. परतफेडीचा कालावधी ७ ते १२ वर्षे.
६. व्याजदर बँकेच्या प्रचलित दरानुसार
७. खरेदी करावयाची जमीन त्याच गावातील किंवा मालकीच्या जमीनीपासून ३ ते ५ कि.मी. च्या आत असावी.
८. जमीन खरेदी बरोबर विकास कर्ज उपलब्ध.
कृषी पदवी धारकांसाठी अँग्री क्लिनिक व अँग्रो बिझेनेस सेंटर काढण्यासाठी योजना
१) कृषी किंवा कृषी संलग्न विषयातील पदवी धारक उघोजक वैयक्तिक कींवा संयुक्तपणे ह्ग योजनेचा फायदा घेण्यासाठी पात्र.
२) ह्ग योजनेअंतर्गत कृषी पदवी धारकाने तंत्रक्षान प्रसाराने पिकांचे रोग व किड नियंत्रण आदी बाबत शेतकन्यांना मार्गदर्शन करणे अपेक्षित आहे.
३) या योजने अंतर्गत वैयक्तिक कर्जासाठी १० लाखाची / मर्यादा संयुक्तपणे घेतलेल्या प्रकल्पास रु. ५० लाखाची / मर्यादा.
४) रु. ५ लाख पर्यँतच्या कर्जस मार्जनची आवश्यकता नाही. यापुढील कर्जाल अ. जा/ महिला लाभार्थीसाठी नाबार्डच्या मार्जीन मनी असिस्टोन्स योजनेखाली ५० % मार्जीन मनी उपलब्ध आहे.
५) लाभार्य़ीस कर्जाशी निगडीत २५ % अनुदान उपलब्ध आहे. अजा / अजा महिला लाभार्थ्यास ३३ % अनुदान उपलब्ध आहे. सदर रक्कम ३ वर्षे पुर्ण झाल्यावर मिळते.
६) पहिली दोन वर्षे कर्जावरील पूर्ण व्याज रकमेचे अनुदान मिळते.
७) वरील दोन्हीही प्रकारचे अनुदान बँक कर्जचे नियमितपणे परतफेड करणन्यासच मिळते. परतेफेडीचा कालावधी प्रकळ्पानुसार ५ ते १० वर्षे.
८) उपरोक्त योजने अंतर्गत निवड झाल्यावर मान्याप्राप्त प्रशिक्षण संस्थेत विना शुल्क प्रशिक्षाणाची सोय.
शोतकरी मंडळ योजना
अ) शेतकरी मंडळ हे गांवचे खुले व अनौपचारिक व्यासपीठ
१. योजनेचे उद्दिष्ट- कर्जच्या माध्यमातून शेतकच्यांचा विकास. कृषी तंत्रक्षान प्रसारण क्षमता बोंधणी इत्यादी.
२. मंडळातील सदस्यांची संख्या कमीत कमी १० व जास्तीत जास्त कितीही.
३. मंडळाचे बिगर थकबाकीदार, सर्व शेतकरी सदस्य होऊ शकतात.
४. प्रत्येक मंडळात मुख्या स्वयंसेवक व सहायक स्वयंसेवक असे दोन पदाधिकारी असतात.
५. एक गांव एक शेतकरी मंडळ. नजीकच्या २-३ गावांना मिळून देखील एक शेतकरी मंडळ काढता येते.
६. मंडळाला नोंदणीची आवश्यकता नाही.
७. मंडळाचे बँकेच्या नजीकच्या शाखेत बचत खाते उघडणे आवश्यक आहे.
८. मंडळामार्फत कृषी तंत्रझान प्रसारणसाठी विविध कार्यक्रम उदा, शौक्षाणिक, भेटी, तक्षांचे व्याख्यान प्रगतीशील शेतकच्यांच्या शेकांने भेटी इत्यादी.
९. नाबार्ड मार्फत पहिले तीन वर्ष काही आर्थिक सवलती उपलब्ध.
१०. मंडळाच्या सदस्याना कृषी कर्ज उपलब्ध करुन देण्यास प्राधान्य.
११. शेतकरी मंडळे बचत गटांची निर्मिती करु शकतात. बँकेला वसुलीसाठी व नव-नवीन योजना राबविण्यासाठी मदत करु शकतात.
१२. बँकर व कर्जदार दोघांनाही फायहेशीर.
व्हेचर कँपिटल फॉर डे अरी व पोलट्री योजना
१. पात्र शेतकरी वैयक्तिकरित्या किंवा संयुक्तपणे ह्ग योजनेचा फायदा घेऊ शकतात.
२. पात्र व्यवसाय व प्रकल्प किंमत-
अ) लहान डेअरी – ( १० म्हशी किंवा संकरीत गायी) दुधाचा महापूर योजना ज्या तालुक्यात राबविली आहे त्या तालुक्यांना ही योजना लागु नाही. प्रकल्प किंमत – रु. ३ लाख.
ब) मिल्कींग मशिन व बळ्क मिल्क कुलींग युनिट (२००० लि. क्षमतेपर्यंत) प्रकल्प किंमत – रु १५ लाख.
क) स्थानिक दुग्धजन्य पदार्थ तयार करणयासाठी मशिनरी विकत घेणे.
प्रकल्प किंमत – रु १० लाख.
ड) दुग्ध पदार्थ वाहतुक व्यवस्था (कोल्ड चेन सहीत
प्रकल्प किंमत – रु २० लाख.
इ) खाजगी व्हेटरनरी क्लिनिक काढण्यासाठी रु. २ लाख. फिरते क्लिनिक व स्थानिकासाठी रु. १.५० लाख
उ) पोल्ट्री ब्रीडींग फार्म
प्रकल्प किंमत – रु ३० लाख.
३. मार्जिन श्क्कम १० %
४. प्रकल्प किंमतीच्या ५० % बीनव्याजी वहेंचर कँपिटल
५. बँक कर्ज – प्रकल्प किंमतीच्या ४० %
६. परतफेड कालावधी ७ वर्षे
७. योजनेची अंमलबजावणी नाबार्ड बँकांमार्फत करते.
८. नियमित कर्जफेड करणान्यांस बँकेने दिलेल्या कर्जवर ५० % व्याजासाठी अनुदान मिळते.
कृषी कर्जाच्या इतर योजना
१) राष्ट्रीय फलोघान मंडळामार्फत फलोत्पादन विकास अंतर्गत राबनिल्या जाणाच्या विविध योजना.
२) केंद्र शासन पुरस्कृत अ.जा.व.अ.ज.च्या शेतकन्यांसाठी सिंचनासाठी शेततळी बांधण्यामाठी योजना.
३) राष्ट्रीय प्रकल्प – सेद्रीय शेती अंतर्गत विविध उपक्रम.
४) ठिंबक सिंचन योजना.
५) हरितगृह योजना
६) कृषी निर्यात क्षोन अंतर्गत विविध फळे, फुले व भाजीपाला पिकांना कर्ज
७) करार पध्दतीने शेती प्रकल्पांना कर्ज
८) बचत गटंना कृषी उत्पादन व कृषी विकास कर्ज.
९) कुळाने/ बटाईत शेती करणन्या शेतकन्यांच्या संयुक्त देणदार गटांना कर्ज (Joint liability Groups (JLG’s)
१०) ग्रामीण भागात पेट्रो प्राँडक्टस विकण्यासाठी काढलेल्या किसान सेवा केंद्राना कर्ज
११) शेतकन्यांना घरगुती गँस शेगडी खरेदीसाठी कर्ज सोय.
१२) शेतकनायांना दुचाकी वाहन खरेदीसाठी कर्ज
१३) ग्रामीण भागात स्वच्छतागृह बंधणेसाठी कर्ज
Drip Irrigation
Posted by chandanse in Development, Irrigation on June 19, 2011
Drip Irrigation | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1.0 Introduction Drip irrigation, also known as “trickle” irrigation, is one of the methods of water management. Under this system, water is carried to the plant under low pressure, through small diameter plastic pipes and delivered at the root zone, drop by drop through drippers. Drip irrigation is widely practised and established method of irrigation in developed countries and is slowly gaining popularity in India. It is most suited for horticulture crops, vegetables etc. and finds applicability in hard rock areas where groundwater is scarce and helps in optimisation of the limited water resources. The system has its advantages and limitations. Its advantages are in terms of savings of water (50-60%) of that required for flow irrigation, effective use of fertilizers, less labour and energy cost. The limitation for adopting of this method is its high initial cost which is beyond the purchasing capacity of small and marginal farmers and thus mainly adopted by large farmers. As a policy to encourage use of such systems, the Govt. of India announced the Centrally sponsored Micro Irrigation Scheme during 2005-06. The total cost of the scheme is being shared between Central Government, the State Government and the beneficiary either through his/her own resources or soft loan from financial institutions in the ratio of 40%, 10% and 50% respectively. Bankable schemes have to be formulated for availing bank loans. This model gives broad guidelines for scheme formulation by banks for financing drip irrigation systems. 2.0 SCHEME REQUIREMENTS 2.1 Soil 2.2 Climate and Rainfall 2.3 Groundwater quality 2.4 Designs of Drip System Emitter selection, number of emitters to the plant, water discharge through the emitter and total pumping schedule should be indicated. 2.5 Well Capacity 2.6 Economics 2.7 Basic Data Information 3.0 TECHNICAL ASPECTS
3.1.1 Command Area |
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3.1.2 Water Requirement of crops/plants Water requirement of crops (WR) is a function of surface area covered by plants, evaporation rate and infiltration capacity of soil. At first, the irrigation water requirement has to be calculated for each plant and thereafter for the whole plot based on plant population for the different seasons. The maximum discharge required during any one of the three seasons is adopted for design purposes. The daily water requirement for fully grown plants can be calculated as under. WR = A X B X C X D X E……………..Equation (1) Where : WR = Water requirement (lpd/plant) A = Open Pan evaporation (mm/day) B = Pan factor (0.7) C = Spacing of crops/plant (m2) D = Crop factor (factor depends on plant growth for fully grown plants = 1) E = Wetted Area (0.3 for widely spaced crops and 0.7 for closely. spaced crops) The total water requirement of the farm plot would be WR x No.of Plants The daily water requirement pf various crops per plant for different pan evaporation readings are given in Table 2. |
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Table 2 : Water requirement of Crops/Plants on the Basis of Pan Evaporation Data | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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The water requirement for different seasons can be calculated using Equation 1 given above. The maximum discharge required during any one of the three seasons is adopted for design purposes
3.1.3 Design and Performance of emitter Table 3 : Flow from polythelene Tube emitters of 0.96 mm diameter(lph) |
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Another method of releasing water from laterals is through small perforations in the walls which are sometimes called “soakers”.
3.1.4 Performance of Emitter In orchards having widely spaced plants, two or more line of laterals may be required for each row. Sometimes a loop with 3 to 4 emitters is placed around each plant to provide the required wetted area. This should be away from the plant stem. |
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Table – 4 : Infiltration Rate of Soil | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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Table – 5 : Surface Area Flooded by Emitters | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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3.1.5 No. of emitters The number of emitters is based on the volume of wetting for each plant. Generally, 30-70 percent of the area is wetted dependent upon plant spacing, nature & development of root zone. The number of emitters required per plant is estimated as the ratio of rate of irrigation requirement to the emitter discharge. If single emitter is provided, it must be placed 15-30 cm. from the base of the plant. 4.0 LAYOUT OF DRIP SYSTEM The allowable pressure drop in mainline and laterals depend upon the operating pressure required at emitters. The pressure difference between the proximate and distant point along the supply line should not exceed 20% which will keep the variation of discharge within 10% of its value at the first emitter. Table – 6 Reduction Co-efficient ‘F’ for Multiple Outlet Pipeline Friction Loss Co-efficient |
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Table – 7 Friction Head Loss in Meters per 100 m. Pipe Length | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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4.1 Mainline To design the main line, the pressure required at proximate end of laterals and the maximum friction loss at that point should first be determined. Friction losses due to valves, risers, connectors, etc., should be added to this. Sometimes, two or more laterals simultaneously operate from the mainline and these have to be properly accounted for in the design. The friction head loss in mains can be estimated by Hazen-Williams formula is given bellow. hf = 10.68x(Q/C) xD x(L+Le) Where : hf = Friction head loss in pipe (m) Q = Discharge (M /sec) C = Hazen Willian constant (140 for PVC pipe) D = Inner dia of pipe (m) L = Length of Pipe (m) Le = Equivalent length of pipe and accessories 4.2 Laterals 4.3 Design Criteria
Friction head loss for various discharges is given in table 8 and equivalent lengths of straight pipe in meters giving equivalent resistance to flow in pipe fittings in Table 9. |
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Table-8 : Friction Losses for Flow of Water (m/100m) in smooth Pipes(c=140) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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For other type of pipes (new) multiply foregoing figures by factor given below | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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Table – 9 : Length of Straight Pipe in Meter giving Equivalent Resistance to Flow in Pipe Fittings [ IS : 2951 ( Part II ) – 1965 ] (Equivalent Length in Mtrs.) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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5.0 UNIT COST The unit cost of Drip Irrigation system depends upon the shape and size of command area, spacing and number of plants and their water requirement. The unit cost should include the cost of following main items.
The average unit costs of drip irrigation system for different crops are given in Table-10. This is for guidance only. |
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Table – 10 Unit Cost of Drip Irrigation System | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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The Estimated cost of drip irrigation system for Litchi cultivation on 1 ha plot is given in Annexure-I
6.0 Lending terms & Conditions 6.2 Security : As per RBI norms. 6.3 Interest Rate : The rate of interest to be charged to the ultimate borrowers would be decided by the financing banks as per the RBI guidelines from time to time. However, for working out the financial viability and bankability of the model project, the rate of interest is assumed as 12%. 6.4 Repayment Period : Gestation period can be considered while fixing the repayment period. The repayment of interest shall commence from the end of the Gestation period onwards and would continue till the entire principal and interest thereon is repayed. |
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Appendix : II MODEL FOR A SCHEME OF DRIP IRRIGATION This model scheme for drip irrigation system to avail loan assistance give details about estimation of water requirement of plantation crops, system design, HP of pumping unit, unit cost and financial viability of the investment. Let us assume that the beneficiary has an open well of 4m dia and 25 m depth fitted with 5 HP electric pump set. The area has a land slope of 0.5m/100m and the soil is clayey loam. The farmer proposes to install drip irrigation system for a new citrus plantation on a 1ha plot. a. Design parameters b. Command area The present scheme is prepared for application of drip irrigation on one hectare farm of Litchi. c. Spacing and Plant Population of Litchi in one ha. d. Water requirement for litchi plants. The daily water requirement for fully grown plants can be calculated as under. The total water requirement of the farm plot would be WR x No.of Plants . e. Estimation of Water Requirement |
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The daily water requirement of plants using above equation has been worked out as under. | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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Therefore, the drip irrigation system has to be designed for the maximum requirement of 65.07 litre /day/plant during the summer season and for this the water required would be 13.53 m3/ day/ha of plantation. If the average working hour of pump set is taken as 4 hours per day, the discharge required would be as below :
Pumping rate per hectare = 13.53 m3 /day/ha = 3.38 m3 /hr/ha = 0.94 LPs or say 1 LPs. As required discharge is only 13.53 m3 /day/ha, it can be pumped for one hour only from a well giving a discharge of 5-6 lps. This is also the normal well yield in the scheme area using a 3-5 HP pump set. For the estimated water requirement of 1 lps only, an arrangement to divert excess water to irrigate other crops would be provided, especially during Kharif and Rabi periods. Alternatively, a tank of 14 m3 capacity can be provided where necessary so that uninterrupted irrigation may continue even in areas where power shut down are frequent. f. Emitters No. of emitters/plant = Rate of Pumping/hour/plant /Avg. discharge of one emitter g. Main Line h. Friction Head loss in Pipes (m) The value of coefficients has been taken from tables given below. It would be seen from table 1 that for a discharge of 1 LPs through a pipe of say 40 mm diameter, the friction loss would be 2 m per 100 length or 2.2 m for 112 m equivalent length. Friction Losses for Flow of Water (m/100m) in smooth Pipes(c=140) i. Discharge| Bore diameter(mm) |
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For other type of pipes (new) multiply foregoing figures by factor given below Friction head loss = 2.2 x 0.88 = 1.94 or say 2.0 Conversion factor = (0.88) As the proposed system uses multiple openings, the friction loss is taken as 1/3 of the total friction loss i.e. 2.0/3 i.e. 0.66 m. Thus, the loss in mains is within 1.0 m/100 m and a pipe of 40 mm diameter is ideal in the layout. j. Laterals |
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k. HP of Pump set The HP of pump set required is based upon design discharge and total operating head. The total head is the sum of total static head and friction losses in the system. (i) Static Head.The total static head is the sum total of the following (m). |
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(ii) The friction loss in the drip unit as under (m) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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Total Head = Static Head + Friction head loss = 22.25 + 6.95 = 29.20 m or say 30 m The required HP of the pumpset has been calculated as per the following formula. Hp of pump set = Q x H/ 75 x e Where Q = discharge (lps) H = Head (m) e = Pumping efficiency (o.6) HP = 1×30 /75x.6 = 0.66 or say 1 HP. |
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Appendix – III | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
CHECK LIST
MINOR IRRIGATION – DRIP IRRIGATION (To be completed by the Executive/Officer of the bank forwarding the scheme) NOTE : Tick (/ ) across the line to signify that the relevant information has been furnished in the scheme. |
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कृषीवलांची भूमी!
Posted by chandanse in Agriculture, Development, Irrigation, Marathi, Weed Control on June 19, 2011
महाराष्ट्रातील शेती ही प्रामुख्याने कोरडवाहू असून मोसमी पावसावर अवलंबून आहे. एकूण २२५.७ लाख हेक्टर पिकाखालील क्षेत्रापैकी सुमारे ८० ते ८५% शेती जिरायती स्वरूपाची असून सुमारे १६% क्षेत्र बागायती शेतीखाली आहे. महाराष्ट्राच्या सुमारे १० कोटी लोकसंख्येपैकी सुमारे ५८% लोक ग्रामीण भागात राहतात तर एकूण मनुष्यबळाच्या ५५% लोक शेतीवर अवलंबून आहेत. महाराष्ट्राच्या अर्थव्यवस्थेत कृषिक्षेत्राचा वाटा एकूण सुमारे १५% आहे. महाराष्ट्रातील प्राकृतिक रचनेत विविधता आढळते त्याचप्रमाणे हवामानामध्येही विभिन्नता आहे. त्यामुळे साहजिकच महाराष्ट्रात एकाच प्रकारची शेती होती नाही. मशागत करण्याच्या पद्धतीमध्ये प्रादेशिक घटकांचा मुख्यत्वेकरून प्रभाव पडतो. त्यानुसार महाराष्ट्रातील शेतीचे पुढील प्रकार पडतात. –
१. ओलीत शेती २. आर्द्र शेती ३. बागायत शेती ४. कोरडवाहू किंवा जिराईत शेती
५. पायर्यापायर्यांची शेती ६. स्थलांतरीत शेती
ग्रामीण महाराष्ट्रातील लोकांचा प्रमुख व्यवसाय अर्थातच शेती हाच आहे. आजही मराठी शेतकरी जमिनीला आई मानतात, पशु-धनाची, कृषिअवजारांची पूजा करतात. आपले शेतकरी शेतीला केवळ उपजीविकेचे साधन मानत नाहीत. महाराष्ट्रात ‘कृषीसंस्कृती’ हा शब्द सहजगत्या वापरला जातो. शहरीकरण जरी वाढत असले, तरी आजही ‘शेती’ हा लाखो शेतकर्यांच्या जीवनाचे एक प्रमुख अंग आहे, जीवन जगण्याची पद्धती आहे. विवाहसंस्था, कुटुंबसंस्था या कृषिआधारीत समाजव्यवस्थेशी जोडलेल्या आहेत. महाराष्ट्रातील अनेक सण-उत्सव हे शेतीच्या वेळापत्रकाशी जोडलेले आहेत. महाराष्ट्रात शेती हे असे क्षेत्र आहे की, ज्यावर संपूर्ण राज्याचे राजकारण, समाजकारण व अर्थकारण अवलंबून आहे. सर्वांगीण विकासासाठी सातत्याने आधुनिकतेची कास धरणार्या महाराष्ट्रात शेती क्षेत्रातही सातत्याने नवनवीन उपक्रम, तंत्रज्ञान यांचा अवलंब करून दर्जेदार उत्पादन वाढीसाठी प्रयत्न केले जात आहेत
.सर्वांगीण विकासासाठी सातत्याने आधुनिकतेची कास धरणार्या महाराष्ट्रात शेती क्षेत्रातही सातत्याने नवनवीन उपक्रम, तंत्रज्ञान यांचा अवलंब करून दर्जेदार उत्पादन वाढीसाठी प्रयत्न केले जात आहेत.
(या विभागातील आकडेवारी ‘महाराष्ट्राची आर्थिक पाहणी; २००८-०९’ नुसार अद्ययावत करण्यात आली आहे.)
एकूण पीक-जमीन वापर : महाराष्ट्राच्या एकूण ३०७.६ लाख हेक्टर भूप्रदेशापैकी सुमारे २२५.७ लाख हेक्टर क्षेत्र एकूण पिकाखालील आहे. याचाच अर्थ महाराष्ट्राच्या एकूण भूप्रदेशापैकी सुमारे २/३ क्षेत्र हे पिकांखाली आहे. हवामान, खडकांचा प्रकार, पावसाचे प्रमाण यांवरून महाराष्ट्रातील जमिनीचे प्रामुख्याने पुढील ६ प्रकारे वर्गीकरण करण्यात येते.
२. लाल रेताड मृदा (चंद्रपूर, गडचिरोली, वर्धा आणि ठाणे , रायगडचा काही भाग.)
३. जांभी मृदा (सातारा, कोल्हापूर आणि रत्नागिरी, सिंधुदुर्गचा काही भाग.)
४. गाळाची मृदा (भीमा, कृष्णा, पंचगंगा, तापी या नद्यांची खोरी.)
५. रेगूर मृदा / काळी मृदा – एकूण क्षेत्रफाळापैकी ३/४ भागात .
६. चिकन मृदा – (ईशान्य महाराष्ट्र, नागपूर, भंडारा, गोंदिया, गडचिरोली, चंद्रपूर.)
तपशील | हेक्टरी क्षेत्र |
राज्यातील निव्वळ पेरणी क्षेत्र | १७४.८ लाख |
वनांखालील क्षेत्र | ५२.१ लाख |
मशागतीसाठी उपलब्ध नसलेले क्षेत्र | ३१.३ लाख |
मशागत न केलेले इतर क्षेत्र | २४.२ लाख |
पडीक जमिनीखालील क्षेत्र | २५.२ लाख |
(२००५-२००६)
इ = पडीक जमिनी – चालू पड व इतर पड – ८%
उ = मशागत न केलेले इतर क्षेत्र – मशागतयोग्य पडीक जमीन, कायमची कुरणे व चराऊ कुरणे आणि किरकोळ झाडे, झुडपे यांच्या समूहाखालील क्षेत्र – ८%
ऊ = मशागतीसाठी उपलब्ध नसलेले क्षेत्र-नापीक व मशागतीस अयोग्य जमीन आणि बिगर- शेती वापराखाली आणलेली जमीन – १०%
ए = वनांखालील जमीन – १७%
महाराष्ट्रातील जवळजवळ ८० ते ८५% शेती मोसमी पावसाच्या लहरीवर अवलंबून आहे. एकूण लागवडीखालील क्षेत्रापैकी केवळ १६.४% क्षेत्र हे सिंचनाखाली आहे.महाराष्ट्रात जलसिंचनाचे प्रामुख्याने कालवे, तळी, सरोवर, पाझर तलाव -विहीरी, उपसा सिंचन, तुषार सिंचन, ठिबक सिंचन, कुपनलिका असे प्रकार पडतात. ठिबक सिंचनात महाराष्ट्र हे अग्रेसर राज्य असून संपूर्ण भारताच्या ६०% ठिबक सिंचन एकट्या महाराष्ट्रात केले जाते. २००६-०७ मध्ये सिंचनाखालील एकूण क्षेत्र हे ३९.५८ लाख हेक्टर होते. पिकाखालील एकूण क्षेत्रापैकी १७.५% क्षेत्र सिंचनाखाली होते.
राज्यातील सिंचनविषयक प्रश्र्न व जलसंपत्ती विकाससंबंधित बाबींची चौकशी करण्यासाठी स.गो. बर्वे यांच्या अध्यक्षतेखाली ७ डिसेंबर, १९६० रोजी महाराष्ट्र राज्य सिंचन आयोगाची स्थापना झाली. १९६२ मध्ये या आयोगाने आपला अहवाल सादर केला.
यातील प्रमुख विषय –
१. एकूण जलसंपत्तीचा अंदाज, तिचा उपयोग, किती टक्के क्षेत्र सिंचनाखाली येऊ शकते याचा अंदाज बांधणे.
२. भविष्यकाळात जलसंपत्तीचे सुयोग्य वाटप व्हावे व दुष्काळी परिस्थितीत संरक्षण मिळावे यासाठी निश्चित आराखडा तयार करणे.
३. सिंचन प्रकल्प देखभाल व दुरुस्तीबाबत धोरण ठरवणे.
निवडक शिफारसीं –
१. ज्या प्रदेशात प्रवाही सिंचन पद्धती राबवणे अशक्य, तेथे विहीरीसारखी सिंचन साधने योजावीत.
२. अधिक पाणी आवश्यक असणार्या उद्योगांना पुरेसे पाणी आहे तेथेच केन्द्रीभूत करावे.
३. सिंचनाचा विकास कालावधी हा बांधकाम सुरू झाल्यापासून ८ वर्षे किंवा सिंचनास सुरुवात झाल्यापासून ५ वर्षे इतका असावा.
४. कालवे व चार्या ज्या भागातून जातील, त्या भागातील ग्रामीण जनतेच्या घरगुती पाणी पुरवठ्याच्या गरजा विचारात घेतल्या जाव्यात.
५. प्रकल्पातील निर्वासित लोकांचे प्रत्यक्ष पुनर्वसन करण्याची जबाबदारी शासनाने घ्यावी.
६. दर १० ते १५ वर्षांनी सिंचन धोरणाचे पुनर्विलोकन करण्यासाठी खास चौकशी आयोगाची नेमणूक करावी.
या आयोगावर शासनाने आपले निर्णय १९६४ साली प्रस्तुत केले.
२. अवर्षणप्रवण क्षेत्राची सत्यशोधन समिती (सुकथनकर) – १९७३:
१९७२ ते ७४ मधील भीषण दुष्काळाच्या पार्श्र्वभूमीवर ही समिती स्थापन करण्यात आली. यामध्ये पाटबंधारे, भूजल, पिण्याचे पाणी यांवर स्वतंत्र
प्रकरणांचा समावेश करण्यात आला.
निवडक शिफारसीं –
– राज्यातील ८३ तालुके अवर्षणप्रवण क्षेत्रात अंतर्भूत करावेत.
– अवर्षणप्रवण क्षेत्रात मृद व जल संधारणाची कामे एकात्मिक पद्धतीने पाणलोट क्षेत्र आधारावर करण्यात यावीत.
– पाणलोट क्षेत्र विकास कार्यक्रमांतर्गत मृद व जलसंधारणासाठी लोकशिक्षणाला महत्त्व द्यावे.
– लघुपाटबंधारे क्षेत्रात वनीकरण कार्यक्रमही राबवण्यात यावेत.
– ठिबक सिंचनास प्रोत्साहन द्यावे.
– सिंचन प्रकल्प लाभक्षेत्रात भूसुधारणेची कामे करावीत. लाभक्षेत्रातील सर्व जमिनीवर कर आकारणी व्हावी.
– जलसंपत्ती उपलब्धता व वापर यांचा हिशेब ठेवण्यासाठी एक कायमस्वरूपी संघटना स्थापन करावी.
महाराष्ट्रातील १/३ अवर्षणप्रवण क्षेत्राच्या पाणीविषयक गरजांची छाननी या अहवालात झाली.
३. आठमाही पाणी वापर समिती – १९७९ :
देऊस्कर, देशमुख, दांडेकर समिती – ६ जुलै, १९७८ ते १४ फेब्रुवारी, १९७९
निवडक शिफारसीं :-
– उपलब्ध पाणी साठ्यांपैकी १/३ पाणी खरीप पिकांसाठी तर २/३ पाणी रब्बी व उन्हाळी पिकांसाठी वापरावे.
– प्रकल्पातील उपलब्ध पाण्याचे सर्व लाभक्षेत्रामध्ये मशागती योग्य क्षेत्राच्या प्रमाणात वाटप करावे.
– लाभक्षेत्रातील शेतकर्यांना द्यावयाच्या पाण्याचे प्रमाण निश्चित करून शेतकर्यांना पीक स्वातंत्र्य द्यावे.
४. सिंचन व्यवस्थापनाबाबत उच्चाधिकारी समिती – १९८१ :
अध्यक्ष – सुरेश जैन
निवडक शिफारसीं :-
– जलसंपत्तीच्या कार्यक्षम वापरासाठी राज्यस्तरावर स्वायत्त महामंडळाची रचना असावी. सिंचन क्षमता ६० हजार हेक्टरपेक्षा अधिक असणार्या
प्रकल्पांसाठी स्वतंत्र, स्वायत्त प्रकल्पस्तरीय प्राधिकरण निर्माण करावे.
– सिंचन विकास महामंडळ व प्रकल्प प्राधिकरण यांच्याकडून देखभाल, दुरुस्ती याबाबतचा खर्च दरवर्षी प्रसिद्ध व्हावा.
– मर्यादित जमीन धारणा कायदा लाभक्षेत्रात तातडीने लागू करावा.
– विदर्भात रब्बी पाणी वापर वाढवण्यासाठी ब्लॉक सिंचन पद्धतीचा वापर सुरू करावा.
– घनमापन पद्धतीने पाण्याचा वापर करण्यास प्रोत्साहित करण्यासाठी शेतकर्यांना वेगळा पाणीदर लावण्याचा विचार व्हावा.
– शासनाच्या उपसा सिंचन योजनेतील २५% खर्च लाभधारकांनी उचलावा.
– पाणीपट्टी वसूलीसाठी अधिक कडक धोरण शासनाने ठरवावे. सिंचन वसुलीसाठी संबंधित विभागात रोखपाल पदांची निर्मिती करावी.
५. प्रादेशिक अनुशेष विषयक दांडेकर समिती – १९८४ :
निवडक शिफारसीं :-
– राज्यांच्या सर्वच प्रदेशातील सिंचनाबाबतची अनुशेष मोजणी तालुका पातळीवर करणे आवश्यक आहे.
– वेगवेगळ्या पीकांखाली असलेल्या सिंचन क्षेत्राची मोजणी समान निर्देशांक पद्धतीने व्हावी म्हणून ‘रब्बी समतुल्य क्षेत्र’ संकल्पना स्विकारावी.
प्रमुख पिके व त्याखालील क्षेत्र :
महाराष्ट्रात खरीप हंगामात सुमारे १४० ते १४५ लाख हेक्टर जमीन लागवडीखाली असून रब्बी हंगामात ६० ते ६५ लाख हेक्टर जमीन लागवडीखाली असते
अन्नधान्य पिके :
खरीप हंगामात खरीप ज्वारी (सुमारे १५ ते २० लाख हेक्टर), बाजरी (१५ ते १७ लाख हेक्टर), एकूण कडधान्ये (२५ ते ३० लाख हेक्टर), तांदूळ (१२ ते १५ लाख हेक्टर) व कापूस (३० ते ३५ लाख हेक्टर) असा प्रमुख पिकांचा खरीप हंगामातील लागवडीचा वाटा आहे.
रब्बी हंगामातील ६० ते ६५ लाख हेक्टर पैकी रब्बी ज्वारीचे क्षेत्र ३० ते ३५ लाख हेक्टर व गव्हाचे क्षेत्र सुमारे ८ लाख हेक्टर आहे. महाराष्ट्रात ज्वारी लागवडीखाली एकूण ५० ते ५५ लाख हेक्टर क्षेत्र असून ज्वारी हेच महाराष्ट्रातील सर्वात महत्त्वाचे पीक आहे.
कापूस, ऊस, तंबाखू, हळद व भाजीपाला ही प्रमुख नगदी पिके महाराष्ट्रात घेतली जातात. त्यातही प्रामुख्याने कापूस व ऊस यांवर आधारित सूत गिरण्या व साखर कारखाने या उद्योगांमुळे या पिकांना राज्यात वेगळेच महत्त्व प्राप्त झालेले आहे.किंबहुना याच पिकांच्या उत्पादनावर महाराष्ट्रातील कृषी-अर्थव्यवस्था व कृषीपूरक उद्योग आधारीत आहेत. महाराष्ट्रातील राजकारणही काही प्रमाणात या पिकांभोवती फिरते.
महाराष्ट्रात सुमारे साडे सहा ते सात लाख हेक्टर क्षेत्र ऊसाच्या लागवडीखाली आहे. देशाच्या एकूण ऊस क्षेत्रापैकी १४% क्षेत्र महाराष्ट्रात आहे. देशांतर्गत एकूण ऊस उत्पादनात महाराष्ट्राचा दुसरा क्रमांक लागतो. या पिकाशी जोडलेले सहकारी साखर कारखाने हा महाराष्ट्राच्या कृषी क्षेत्रातील प्रमुख घटक आहे.
कापूस हे महाराष्ट्रातील महत्त्वाचे नगदी पीक आहे. भारतातील कापसाखाली असलेल्या एकूण क्षेत्राच्या सुमारे ३६% क्षेत्र महाराष्ट्रात आहे. महाराष्ट्रातील लागवडीखालील एकूण क्षेत्राच्या १५.९ % क्षेत्र म्हणजेच सुमारे ३० ते ३५ लाख हेक्टर क्षेत्र कापसाखाली आहे. विदर्भ, मराठवाडा, खानदेश या भागांमध्ये प्रामुख्याने कापसाचे उत्पादन होत असून राज्यातील एकूण कापूस उत्पादनाच्या ६०% उत्पादन विदर्भात, २५% उत्पादन मराठवाड्यात, तर १०% उत्पादन खानदेशात होते. कापूस उत्पादनात महाराष्ट्राचा भारतात पहिला क्रमांक लागतो.
प्रमुख फळपिके :
महाराष्ट्रातील हवामान हे फलोत्पादनास अत्यंत पोषक असून कमी पावसाचा फारसा विपरीत परिणाम फळपिकांवर होत नाही. १९९० पासूनच्या दशकात महाराष्ट्रात फलोद्यान योजना कार्यान्वित झाली त्यामुळे दुष्काळी आणि पर्जन्यछायेच्या भागाचा मोठ्या प्रमाणात कायापालट झाला आहे. सोलापूर जिल्ह्यातीलप्रख्यात कृषिशास्त्रज्ञ वि. ग. राऊळ यांनी फलोद्यान योजनेला संशोधनाचा भक्कम पाठिंबा दिला. तसेच तत्कालीन राज्यकर्त्यांनीही ही योजना यशस्वी होण्यासाठी प्रयत्न केले. सोलापूर जिल्ह्यासह जवळजवळ पूर्ण राज्याचा फलोद्यान विकास या योजनेमुळे साधला गेला.
महाराष्ट्राच्या एकूण कृषी उत्पादनापैकी २५% वाटा फलोत्पादनाचा आहे. राज्यात दरवर्षी सुमारे १०३ लाख मेट्रीक टन फळांचे उत्पादन घेतले जाते. फळांच्या उत्पादनात देशात महाराष्ट्राचा प्रथम क्रमांक लागतो. देशातील केळांच्या एकूण उत्पादनापैकी २५% उत्पादन महाराष्ट्रात होते तर द्राक्ष, डाळींब व संत्र्यांचे देशातील सर्वाधिक उत्पादन महाराष्ट्रात होते. महाराष्ट्रात आंबा, नारळ, काजू यांसारख्या फळांचे उत्पादनही मोठ्या प्रमाणावर घेतले जाते.
महाराष्ट्रातील फळपिकांना राज्याबाहेर आणि परदेशातही मोठ्या प्रमाणावर मागणी आहे. म्हणूनच गुणवत्ता योग्य उत्पादन वाढ, निर्यातीतील अडचणी दूर करणे, पायाभूत सुविधांची उपलब्धता या हेतूंनी महाराष्ट्र राज्य कृषिपणन केंद्रांतर्गंत ७ कृषिनिर्यात केंद्रांची उभारणी करण्यात आली आहे. त्या केद्रांची सूची पुढीलप्रमाणे;
फळपीक | निर्यात सुविधा केंद्र |
आंबा | नाचणे (रत्नागिरी) |
केसर आंबा | जालना (जालना) |
डाळींब | बारामती (पुणे) |
संत्र | आष्टी (वर्धा) |
केळी | सावदा (जळगाव) |
द्राक्ष (मद्यार्क निर्मिती) | पलूस (सांगली) |
द्राक्ष | विंचूर (नाशिक) |
मार्च, २००७ अखेर महाराष्ट्रातील १३.९५ लाख हेक्टर क्षेत्र फळपिकाखाली होते. त्याचा तपशील पुढीलप्रमाणे,
प्रमुख फळपिकांखालील क्षेत्र व उत्पादन (क्षेत्र ‘०००’ हेक्टरमध्ये, उत्पादन ‘०००’ मे. टनामध्ये)
फळपीक | क्षेत्र | उत्पादन |
केळी | ७३ | ४६२२ |
संत्र | १२२ | ७२४ |
द्राक्ष | ४५ | १२८४ |
आंबा | ४४८ | ६४६ |
काजू | १६५ | १६१ |
डाळिंब | ९४ | ६०२ |
मोसंबी | ९४ | ६१७ |
चिक्कू | ६४ | २६७ |
पेरू | ३१ | २२८ |
इतर पिके | २५९ | ११७३ |
एकूण | १३९५ | १०३२४ |
(क्षेत्र हजार हेक्टरांत, उत्पादन हजार टनांत (कापसा व्यतिरिक्त)
(खरीप हंगाम – जून, जुलै, ऑगस्ट, सप्टेंबर)
पीक | क्षेत्र २००७-०८ (अंतिम अंदाज) |
क्षेत्र २००८-०९ (तात्पुरता) |
उत्पादन २००७-०८ (अंतिम अंदाज) |
त्पादन २००८-०९ (तात्पुरता) |
तांदूळ | १,५३५ | १,५०२ | २,९१३ | २,२३५ |
बाजरी | १,२८३ | ८७७ | १,१२७ | १,१२७ |
खरीप ज्वारी | १,२७१ | ९३४ | १,८८४ | १,१६९ |
नाचणी | १२८ | १२९ | १२४ | १२६ |
मका | ५७१ | ५५६ | १,५४५ | १,२७० |
इतर खरीप तृणधान्ये | ६१ | ६८ | ३४ | ३४ |
एकूण खरीप तृणधान्ये | ४,८४९ | ४,०६६ | ७,६२७ | ५,५५७ |
तूर | १,१५९ | १,००८ | १,०७६ | ७४५ |
मूग | ६६१ | ४१५ | ३६७ | १०३ |
उडीद | ५६४ | ३१५ | ३२० | १११ |
इतर खरीप कडधान्ये | १७७ | ८८ | ७५ | २८ |
एकूण खरीप कडधान्ये | २,५६१ | १,८२६ | १,८३८ | ९८७ |
एकूण खरीप अन्नधान्ये | ७,४१० | ५,८९२ | ९,४६५ | ६,५४४ |
सोयाबीन | २,६६४ | ३,०८१ | ३,९७६ | १,८५९ |
खरीप भुईमूग | ३२९ | २४७ | ३६६ | २६१ |
खरीप तीळ | ८९ | ४९ | २९ | १३ |
कारळे | ४७ | ४३ | १३ | ११ |
खरीप सूर्यफूल | ११२ | ११३ | ६५ | ६७ |
इतर तेलबिया | १२ | ११ | ०४ | ०३ |
एकूण खरीप तेलबिया | ३,२५३ | ३,५४४ | ४,४५३ | २,२१४ |
कापूस (रुई)* | ३,१९५ | ३,१३३ | ७,०१५ | ५,२०२ |
ऊस** | १,०९३ | ७७० | ८८,४३७ | ५०,८१३ |
एकूण | १४,९५१ | १३,३३९ |
संदर्भ – महाराष्ट्राची आर्थिक पाहणी २००७-२००८
(क्षेत्र हजार हेक्टरांत, उत्पादन हजार टनांत (कापसा व्यतिरिक्त))
(रब्बी हंगाम – नोव्हेंबर, डिसेंबर, जानेवारी)
पीक | क्षेत्र २००७-०८ (अंतिम अंदाज) |
क्षेत्र २००८-०९ (तात्पुरता) |
उत्पादन २००७-०८ (अंतिम अंदाज) |
उत्पादन २००८-०९ (तात्पुरता) |
रब्बी ज्वारी | २,८७७ | ३,२५७ | २,११९ | २,५७३ |
गहू | १,२५३ | ९८६ | २,३७१ | १,५५३ |
रब्बी मका | ८७ | ८३ | २२३ | १७७ |
इतर रब्बी तृणधान्ये | ५ | ५ | ०२ | ३ |
एकूण रब्बी तृणधान्ये | ४,२२ | ४,३३१ | ४,७१५ | ४,३०६ |
हरभरा | १,३५३ | १,१३८ | १,११६ | ८२४ |
इतर रब्बी कडधान्ये | १४२ | ९७ | ७० | ४५ |
एकूण रब्बी कडधान्ये | १,४९५ | १,२३५ | १,१८६ | ८६९ |
एकूण रब्बी अन्नधान्य | ५,७१७ | ५,५६६ | ५,९०१ | ५,१७५ |
रब्बी तीळ | ४ | ०१ | ०१ | ० |
करडई | १७६ | १४७ | १३० | ९७ |
रब्बी सूर्यफूल | २३१ | १८२ | १५४ | १०९ |
जवस | ६८ | ३७ | १९ | ११ |
सरसू व मोहरी | ९ | ०७ | ०४ | ०२ |
एकूण रब्बी तेलबिया | ४८८ | ३७४ | ३०८ | २१९ |
एकूण रब्बी पिके | ६,२०५ | ५,९४० | ६,२०९ | ५,३९४ |
महाराष्ट्रात गेल्या २ दशकांमध्ये अन्नधान्यांचे एकूण उत्पादन ८७.१ लाख मे. टनावरून २००६-०७ मध्ये १२८.८ लाख मे. टन – इतके वाढले आहे.
साखर उद्योग :
महाराष्ट्रात साखर उद्योग हा कृषीआधारीत असा प्रमुख उद्योग मानला जातो. ग्रामीण भागातील सुमारे अडीच कोटी लोकांचे जीवन साखर उद्योगावर अवलंबून आहे. साखरेतून महाराष्ट्राला सुमारे २२०० कोटी रूपयांचा महसूल प्राप्त होतो. एका साखर कारखान्यामुळे ऊस लागवडीपासून साखर बाजारपेठेत पोहोचेपर्यंत सर्व प्रकारच्या प्रकियांमध्ये ५००० लोकांना थेट रोजगार उपलब्ध होतो. या आकडेवारीवरून महाराष्ट्रातील साखर उद्योगाचे स्थान अधोरेखीत होते. राज्यात एकूण २०२ नोंदणीकृत साखर कारखाने असून (यांमधील काही आजारी व बंद) त्यामधून वर्षाला सुमारे १२००० कोटींची उलाढाल होते. साखरेच्या उत्पादनात दरवर्षी मोठ्या प्रमाणात वाढ होत असून २००७ साली सुमारे ८५० लाख टन एवढे साखरेचे विक्रमी उत्पादन झाले.
महाराष्ट्रातील सहकारी साखर कारखान्यांना ६० वर्षांची परंपरा आहे. अहमदनगर जिल्ह्यात पहिला सहकारी साखर कारखाना स्थापन करणारे डॉ. विठ्ठलराव विखे-पाटील, ज्येष्ठ सहकार तज्ज्ञ धनंजयराव गाडगीळ, वसंतदादा पाटील, तात्यासाहेब कोरे आदी अनेक लोकांच्या योगदानातून महाराष्ट्रातील ‘सहकार’ क्षेत्र आकाराला आले आहे.
राज्यात सहकारी साखर कारखाना हा केवळ उद्योग राहिलेला नाही, तर ती एक ‘चळवळ’ बनलेली आहे. या चळवळीतून औद्योगिक विकास तर झालाच, शिवाय महाराष्ट्राला अनेक स्तरांवरील सामाजिक व राजकीय नेतृत्वही यांतून प्राप्त झाले. साखर कारखान्यांच्या आसपासच्या परिसरातील मूलभूत सोयी सुविधांचा विकास झपाट्याने झाला. साखर कारखान्याला जोडूनच शिक्षण संकुल उभारण्याची परंपरा महाराष्ट्रात निर्माण झाली आहे. कारखान्यांमार्फत विविध पाटबंधारे योजना, लिफ्ट इरिगेशनसारख्या विकासाच्या योजना राबविल्या जात असून शाळा, महाविद्यालये, दवाखाने यांसारख्या कल्याणकारी संस्था स्थापन केल्या गेल्या आहेत. त्यामुळे औद्योगिक विकासाबरोबरच शैक्षणिक व सामाजिक विकासही साधला गेला आहे.
कारखान्यातून साखरेव्यतिरिक्त इतर दुय्यम उत्पादने निर्माण होतात. सुमारे १०० टन ऊस गाळप केल्यास त्यापासून अंदाजे २८ ते ३० टन उसाचे चिपाड, ४ टन मळी, ३ टन गाळलेली राड व सुमारे ०.३ टन भट्टी राख हे घटक बाहेर पडतात. ही दुय्यम उत्पादने इतर उद्योगांचा कच्चा माल ठरतात.
वर्ष | उसाचे क्षेत्र (००० हेक्टर) | उत्पादन टन (हेक्टरी) | साखर उत्पादन (लाख टन) | साखर उतारा (%) | साखर कारखाने(संख्या) |
१९८०-१९८१ | २५६ | ९२.०० | २८.८५ | ११.०७ | ८२ |
१९९०-१९९१ | ४४० | ९६.५२ | ४१.१७ | १०.७६ | १०२ |
२०००-२००१ | ५९० | ५७६ | ६७.२ | ११.७ | १४० |
२००१-२००२ | उपलब्ध नाही. | ४८० | ५५.८ | ११.२ | *१२७ |
२००२-२००३ | उपलब्ध नाही. | ५३४ | ६२.० | उपलब्ध नाही. | १५९ |
(संदर्भ : वसंतदादा शुगर इन्स्टिट्यूट, पुणे पुस्तिका व महाराष्ट्र टाइम्स वार्तापत्र)
राज्यातील साखर कारखान्यांनी गोबर गॅस संयंत्रे बांधणे, विहिरी खोदणे, शौचालये बांधणे, पशुखाद्य तयार करणे, कुक्कुटपालन, फळबागांची लागवड आदी उपक्रमांना, उद्योगांना उत्तेजन देऊन ग्रामीण भागाच्या सर्वांगीण विकासास हातभार लावला आहे.
महाराष्ट्रात आधुनिक पद्धतीने कापड उद्योगाला १५० वर्षांपूर्वी सुरुवात झाली. राज्यातील पहिली कापड गिरणी १८५४ मध्ये मुंबई येथे सुरू झाली, ही देशातील पहिली कापड गिरणी समजली जाते.
मुंबई हे महाराष्ट्रातील कापड उद्योगाचे सर्वांत मोठे केंद्र आहे. समुद्र जवळ असल्यामुळे तेथील दमट हवामान कापडाच्या निर्मितीसाठी पोषक आहे. त्यामुळे तेथे कापड उद्योगाचे मोठ्या प्रमाणावर केंद्रीकरण झाले आहे. त्याचबरोबर नाशिक, कोल्हापूर, सांगली, सोलापूर, नागपूर या ठिकाणी विशिष्ट प्रकारच्या कापडाचे उत्पादन केले जाते. उदा. येवला (नाशिक) येथील पैठणी, पितांबर तसेच सोलापूर येथील चादरी, नागपुर येथील सूती कापड इत्यादी. तसेच हातमाग व यंत्रमागासाठी इचलकरंजी (कोल्हापूर) व मालेगाव (नाशिक) ही केंद्रे देखील प्रसिद्ध आहेत.
पशुधन :
महाराष्ट्राच्या ग्रामीण अर्थव्यवस्थेत पशुधनाला विशेष स्थान आहे. गाय, म्हैस, बैल, शेळ्या, मेंढ्या, कोंबडी या प्राण्यांचे ग्रामीण अर्थव्यवस्थेमध्ये मोलाचे स्थान आहे. सन २००७-०८ मधील कृषी क्षेत्राच्या स्थूल राज्य उत्पन्नात या क्षेत्राचा हिस्सा सुमारे २४% होता. राज्यात दर चौ. कि. मी. मागे पशुधनाची घनता १२० होती (२००७ च्या पशुगणनेनुसार).
शेतीपूरक उद्योगांमध्ये दुग्ध-व्यवसाय हा प्रमुख व्यवसाय मानला जातो. महाराष्ट्रात शेतकर्यांनी दुग्ध व्यवसाय हा शेतीपूरक व्यवसाय म्हणून स्वीकारल्यामुळे वर्षभर उत्पादन व रोजगाराचे साधन निर्माण झाले आहे. राज्यातील सुमारे ६५% शेतकरी शेतीबरोबर दुग्धव्यवसाय करतात. महानंद, गोकूळ, वारणा आदी अनेक दुग्ध व संबंधित उत्पादनांचे मोठे प्रकल्प महाराष्ट्रात कार्यरत आहेत. उत्पादन, प्रक्रिया, वाहतूक व पशुपालन या माध्यमातून लाखो लोकांना रोजगार देणारे हे क्षेत्र आहे.
उत्पादन | परिमाण | २००६-०७ |
२००७-०८* | शेकडा वाढ |
दूध | ००० मे. टन | ६,९७८ | ७,१८७ | ३.० |
अंडी | कोटी | ३४० | ३५१ | ३.२ |
मांस | ००० मे. टन | २४३ | २५० | २.९ |
लोकर | लाख कि. गॅ. | १६.६७ | १६.९६ | १.७ |
२००६-०७ मधील कृषी क्षेत्राच्या स्थूल राज्य उत्पादनात पशुधनाचा हिस्सा सुमारे २१ % होता.
२००३ च्या पशुगणने नुसार महाराष्ट्रातील पशुधन हे सुमारे ३.७१ कोटी इतके होते.
राज्यातील हवामान रेशीम उद्योगास अनुकूल असून ग्रामीण भागात मोठ्या प्रमाणावर रोजगार निर्मितीसाठी या उद्योगाच्या विकासास राज्यात भरपूर वाव आहे. देशात अपारंपरिक पद्धतीने रेशीम उत्पादनात महाराष्ट्र प्रथम क्रमांकावर असून एकूण रेशीम उत्पादनात ५ व्या स्थानावर आहे. राज्यातील २३ जिल्ह्यात तुती रेशीम विकास कार्यक्रम राबवला जात असून विदर्भातील गडचिरोली, चंद्रपूर, भंडारा आणि गोंदिया या चार जिल्ह्यांमध्ये टसर रेशीम विकास प्रकल्प राबवला जात आहे.
महाराष्ट्राला कोकण किनारपट्टी लाभली आहे. सुमारे ७२० कि. मी. चा सागरी किनारा लाभला आहे. यामुळे सागरी मासेमारी हा कोकणचा एक महत्त्वाचा व्यवसाय आहे. डहाणू, माहीम, वसई, वर्सोवा, अलिबाग, मुरुड-जंजिरा, श्रीवर्धन, दाभोळ, रत्नागिरी, शिरोड, हर्णै, वेंगूर्ला ही किनार्यावरील महत्त्वाची केंद्रे आहेत. सुरमई, पापलेट, कोळंबी, बांगडी, सावस, हलवा अशा अनेक जातींचे मासे कोकण किनारपट्टीवर आढळतात.याशिवाय राज्यातील नद्या, तलाव व धरणांच्या जलाशयांमध्येही गोड्या पाण्यातील मासेमारी चालते. अन्न म्हणून माशांना अनन्यसाधारण महत्त्व आहे. त्याचबरोबर तेलनिर्मिती, खतनिर्मिती, सौंदर्यप्रसाधने निर्मिती या उद्योगांमध्येही माशांचा वापर केला जातो. राज्यात ९.१२ लाख चौ. कि. मी. क्षेत्र सागरी, ३.०१ लाख हेक्टर क्षेत्र गोड्या पाण्यातील व ०.१९ लाख हेक्टर क्षेत्र निमखार्या पाण्यातील मासेमारीस योग्य आहे. महाराष्ट्रातील मत्स्य उत्पादनाचा तक्ता पुढे देत आहोत.
घटक | परिमाण २००८-०९ | २००७-०८* | २००६-०७ |
एकूण मत्स्य उत्पादन | |||
सागरी | लाख मे. टन ३.६ | ४.१ | ४.६ |
गोड्या पाण्यातील | लाख मे. टन १.० | १.३ | १.३ |
एकूण | ४.६ | ५.४ | ५.९ |
मत्स्य उत्पादनाचे एकूण मूल्य | |||
सागरी | रु. कोटीत उ. ना. | १,५०६ | १,४२३ |
गोड्या पाण्यातील | रु. कोटीत उ. ना. | ७५५ | ६२२ |
एकूण | उ. ना. | २,२६१ | २,०४५ |
मत्स्य उत्पादनाची निर्यात | |||
अ) मात्रा | लाख मे. टन ०.५ | १.० | १.४० |
ब) मूल्य | रु. कोटीत ६८६ | १,२३७ | १,३४७ |
सागरी मच्छिमारी बोटी | संख्या २७,८१२ | २६,१९५** | २४,६४४ |
यापैकी यांत्रिकी | संख्या १४,४६९ | १४,६६६** | १४,५५४ |
मासे उतरविण्याची केंद्रे | संख्या १८४ | १८४** | १८४ |
कृषी संशोधन व प्रशिक्षण या क्षेत्रांमध्ये महाराष्ट्र नेहमीच आघाडीवर राहण्याचा प्रयत्न करतो. कृषी विद्यापीठे, संशोधन संस्था या माध्यमातून संशोधन, प्रशिक्षण व प्रात्यक्षिके हे कार्य चालते.
राज्यात सध्या ४ कृषी विद्यापीठे असून या विद्यापीठांमधून कृषी व संबंधित विषयांमधील पदवी व पदविका अभ्यासक्रम शिकवले जातात. या विद्यापीठांमधून कृषी संशोधनही होत असते. ४ कृषी विद्यापीठे पुढीलप्रमाणे –
प्रमुख संशोधन विषय – ऊस, ज्वारी, आणि गहू.
२. डॉ. पंजाबराव देशमुख कृषी विद्यापीठ- स्थापन : १९६९ स्थान -अकोला.
प्रमुख संशोधन विषय – कापूस, गहू, डाळी, व तेलबिया
३. डॉ. बाळासाहेब सावंत कोकण कृषी विद्यापीठ- स्थापना : १९७२ स्थान-दापोली, जि. रत्नागिरी.
प्रमुख संशोधन विषय – फलोत्पादन, खारभूमी, मत्स्यव्यवसाय, तांदूळ व नागली.
४. मराठवाडा कृषी विद्यापीठ – स्थापना : १९७२ स्थान – परभणी
प्रमुख संशोधन विषय – कापूस, ऊस, गहू, डाळी, ज्वारी, तेलबिया व रेशीम विकास या चारही विद्यापीठांच्या कार्यपद्धतीत योग्य समन्वय राहावा आणि शिक्षण व संशोधनविषयक नियोजन योग्यरीत्या व्हावे याकरिता राज्यात महाराष्ट्र कृषी संशोधन व शिक्षण परिषद ही वैधानिक संस्था पुण्यात स्थापन करण्यात आली आहे.
पुढे राष्ट्रीय, राज्य व विभागीय स्तरावर महाराष्ट्रातून संशोधन व प्रशिक्षणात्मक कार्य करणार्या संस्थांची / केंद्रांची सूची दिलेली आहे.
१. वसंतदादा शुगर इन्स्टिट्यूट, पुणे. (डेक्कन शुगर इन्स्टिट्यूट) – ऊस संशोधन
२. सेंट्रल इन्स्टिट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च, नागपूर – कापूस संशोधन
३. नॅशनल ब्युरो ऑफ सॉईल सर्व्हे अँड लँड यूज प्लॅनिंग, नागपूर – मृदा परीक्षण व जमिनीचे व्यवस्थापन.
४. नॅशनल रिसर्च सेंटर फॉर ग्रेप्स, पुणे – द्राक्ष संशोधन
५. नॅशनल रिसर्च सेंटर फॉर ओनियन अँड गार्लिक, राजगुरुनगर, पुणे. – कांदा व लसूण संशोधन
६. जल व भूमी व्यवस्थापन संस्था (वॉटर अँड लँड मॅनेजमेंट इन्स्टिट्यूट- वाल्मी), औरंगाबाद – सिंचन, पाण्याचे व्यवस्थापन या विषयांवरील प्रशिक्षण देणारी संस्था.
७. राष्ट्र्रीय कृषी संशोधन प्रकल्प, साकोली, जि. भंडारा.
८. राष्ट्रीय कृषी संशोधन प्रकल्प, तारसा, जि. नागपूर
९. राष्ट्रीय कृषी संशोधन प्रकल्प, सिंदेवाही, जि. चंद्रपूर
१०. अन्य राज्यस्तरीय व विभागीय संशोधन केंद्रे.
– कोरडवाहू साळ संशोधन केंद्र, तुळजापूर, जि. उस्मानाबाद.
– पेरसाळ संशोधन केंद्र, परभणी, जि. परभणी.
– अवर्षणप्रवण क्षेत्र, विभागीय कृषी संशोधन केंद्र, सोलापूर (कोरडवाहू शेतीबाबत संशोधन)
– कृषी संशोधन केंद्र, कर्जत, जि. रायगड.
– कृषी संशोधन केंद्र, जळगाव (गळित धान्ये, कापूस व केळी या पिकांबाबत संशोधन)
– कृषी संशोधन केंद्र, राधानगरी, जि. कोल्हापूर.
– उपपर्वतीय विभाग, विभागीय कृषी संशोधन केंद्र, शेंडापार्क, कोल्हापूर (जैविक कीडनियंत्रणाबाबत संशोधन)
– कृषी संशोधन केंद्र, निफाड, जि. नाशिक (गहू)
– पश्चिम घाट विभाग, विभागीय कृषी संशोधन प्रकल्प, इगतपुरी, जि. नाशिक (भात, फलोद्यान व वनशेती यांबाबतचे संशोधन)
– कृषी संशोधन केंद्र, लोणवळा, जि. पुणे.
– कृषी संशोधन केंद्र, वडगाव मावळ, जि. पुणे.
– ऊस संशोधन केंद्र, पाडेगाव, पो. निरा, जि. पुणे.
– पश्चिम महाराष्ट्र मैदानी विभाग, विभागीय फळ संशोधन केंद्र, गणेशखिंड, पुणे.
डॉ. पंजाबराव देशमुख कृषी विद्यापीठ, अकोला
१. मध्य विदर्भ विभाग, विभागीय कृषी संशोधन केंद्र, यवतमाळ.
२. पूर्व विदर्भ विभाग, विभागीय कृषी संशोधन केंद्र, सिंदेवाही, जि. चंद्रपूर
मराठवाडा कृषी विद्यापीठ, परभणी
मध्य महाराष्ट्र पठारी विभाग, विभागीय कृषी संशोधन केंद्र, औरंगाबाद.
डॉ. बाळासाहेब सावंत कोकण कृषी विद्यापीठ, दापोली.
१. प्रादेशिक फळ संशोधन केंद्र, वेंगुर्ला, जि. सिंधुदुर्ग.
२. प्रादेशिक कृषी संशोधन केंद्र, कर्जत, जि. रायगड.
३. खार जमीन संशोधन केंद्र, पनवेल, जि. रायगड.
४. प्रादेशिक नारळ संशोधन केंद्र, भाट्ये, जि. रत्नागिरी.
५. आंबा संशोधन केंद्र, रामेश्वर, ता. देवगड, जि. सिंधुदुर्ग.
६. तारापोरवाला सागरी जीवशास्त्र संशोधन केंद्र, बांद्रा, मुंबई.
७. सुपारी संशोधन केंद्र, श्रीवर्धन, जि. रायगड.
प्रगत कृषी तंत्रज्ञान जलदगतीने शेतकर्यांपर्यंत पोहोचावे यासाठी आणि प्रत्येक विभागातील प्रमुख पिकांचे उत्पादन वाढवण्यासाठी प्रोत्साहन देण्याच्या हेतूने ५६ कृषी प्रशिक्षण केंद्राची स्थापना महाराष्ट्र सरकाराकडून करण्यात आली आहे.
कार्य :
१. शेतकर्यांना प्रशिक्षण सुविधांची उपलब्धता.
२. आधुनिक तंत्रज्ञानावर आधारित प्रात्यक्षिक प्रशिक्षणे.
३. मृदा व पाण्याचे पृथ:करण.
४. पिकांवरील कीड व रोग नमुन्याचे निदान व सल्ला सुविधा.
अन्न उपलब्धतेची शाश्वती व ग्रामीण जनतेचे (प्रामुख्याने शेतकर्यांचे) राहणीमान सुधारणे याकरिता कृषी क्षेत्राचा विकास होणे महत्त्वाचे आहे. आज मोठे-मोठे उद्योग समूह शेती व्यवसायाकडे वळत आहेत. कार्पोरेट फार्मिंग, कॉन्ट्रॅक्ट फार्मिंगसारख्या नवीन कल्पना अस्तित्वात येत आहेत. या कल्पनांच्या आधारावर ‘सहकारी शेती’,‘गट शेती’ प्रत्यक्षात येऊ शकतील.
महाराष्ट्रातील शेती उद्योगामध्ये शासकीय पातळीवर अधिकाधिक आर्थिक गुंतवणूक होणे गरजेचे आहे. शेती क्षेत्राला उद्योगाचा दर्जा, शेती करणार्या व्यक्तीस समाजामध्ये ‘मानाचे स्थान’ प्राप्त होणे गरजेचे आहे. जेणेकरून आजचा सुशिक्षित तरुण वर्गही या उद्योगामध्ये काम करण्यास उद्युक्त होईल. शेती उद्योगाची आव्हाने पेलण्याची मानसिकता आजच्या तरुणांनी दाखवावयास हवी. त्याकरिता सरकारने, समाजाने, बँकांनी, सहकारी संस्थांनी, खाजगी क्षेत्रातील उद्योगांनी, प्रशिक्षण संस्थांनी, राजकीय नेत्यांनी व सामाजिक कार्यकर्त्यांनी एकत्र येऊन आजच्या तरुण पिढीस सहकार्य व मार्गदर्शन करावयास हवे. तरच आजचा सुशिक्षित तरुण शेती उद्योगाची आव्हाने समर्थरीत्या, यशस्वीपणे पेलू शकेल.
आज शेती प्रशिक्षणाच्या व संशोधनाच्या संस्थांना बळकटी देणे आवश्यक आहे. प्रशिक्षणाच्या अभ्यासक्रमातही आजच्या गरजेनुसार आमूलाग्र बदल केले पाहिजेत. व्यवसायाभिमुख कृषी शिक्षण देण्याची आवश्यकता आहे. शेतीच्या बाजारपेठेचे ज्ञान, शेतीपूरक उद्योग, मार्केटिंग (विपणन), पॅकेजिंग, प्रक्रिया उद्योग, साठवणूक उद्योग, शेतीचे व्यवस्थापन व वाणिज्य या विषयीच्या संपूर्ण ज्ञानाचा अभ्यासक्रमात अंतर्भाव असणे आवश्यक आहे. शेती उद्योगाविषयीची असुरक्षिततेची भावना घालवून, शेती उद्योगाची आव्हाने पेलू शकणार्या मानसिकतेला सामर्थ्य देण्यासाठी व आत्मविश्वास प्रबळ होण्याकरिता सर्व संबंधित घटकांनी अधिक प्रयत्न करणे गरजेचे आहे.