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आल्हा

आल्हा

आल्हा का नाम किसने नहीं सुना। पुराने जमाने के चन्देल राजपूतों में वीरता और जान पर खेलकर स्वामी की सेवा करने के लिए किसी राजा महाराजा को भी यह अमर कीर्ति नहीं मिली। राजपूतों के नैतिक नियमों में केवल वीरता ही नहीं थी बल्कि अपने स्वामी और अपने राजा के लिए जान देना भी उसका एक अंग था। आल्हा और ऊदल की जिन्दगी इसकी सबसे अच्छी मिसाल है। सच्चा राजपूत क्या होता था और उसे क्या होना चाहिये इसे लिस खूबसूरती से इन दोनों भाइयों ने दिखा दिया है, उसकी मिसाल हिन्दोस्तान के किसी दूसरे हिस्से में मुश्किल से मिल सकेगी। आल्हा और ऊदल के मार्के और उसको कारनामे एक चन्देली कवि ने शायद उन्हीं के जमाने में गाये, और उसको इस सूबे में जो लोकप्रियता प्राप्त है वह शायद रामायण को भी न हो। यह कविता आल्हा ही के नाम से प्रसिद्ध है और आठ-नौ शताब्दियॉँ गुजर जाने के बावजूद उसकी दिलचस्पी और सर्वप्रियता में अन्तर नहीं आया। आल्हा गाने का इस प्रदेश मे बड़ा रिवाज है। देहात में लोग हजारों की संख्या में आल्हा सुनने के लिए जमा होते हैं। शहरों में भी कभी-कभी यह मण्डलियॉँ दिखाई दे जाती हैं। बड़े लोगों की अपेक्षा सर्वसाधारण में यह किस्सा अधिक लोकप्रिय है। किसी मजलिस में जाइए हजारों आदमी जमीन के फर्श पर बैठे हुए हैं, सारी महाफिल जैसे बेसुध हो रही है और आल्हा गाने वाला किसी मोढ़े पर बैठा हुआ आपनी अलाप सुना रहा है। उसकी आवज आवश्यकतानुसार कभी ऊँची हो जाती है और कभी मद्धिम, मगर जब वह किसी लड़ाई और उसकी तैयारियों का जिक्र करने लगता है तो शब्दों का प्रवाह, उसके हाथों और भावों के इशारे, ढोल की मर्दाना लय उन पर वीरतापूर्ण शब्दों का चुस्ती से बैठना, जो जड़ाई की कविताओं ही की अपनी एक विशेषता है, यह सब चीजें मिलकर सुनने वालों के दिलों में मर्दाना जोश की एक उमंग सी पैदा कर देती हैं। बयान करने का तर्ज ऐसा सादा और दिलचस्प और जबान ऐसी आमफहम है कि उसके समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती। वर्णन और भावों की सादगी, कला के सौंदर्य का प्राण है। राजा परमालदेव चन्देल खानदान का आखिरी राजा था। तेरहवीं शाताब्दी के आरम्भ में वह खानदान समाप्त हो गया। महोबा जो एक मामूली कस्बा है उस जमाने में चन्देलों की राजधानी था। महोबा की सल्तनत दिल्ली और कन्नौज से आंखें मिलाती थी। आल्हा और ऊदल इसी राजा परमालदेव के दरबार के सम्मनित सदस्य थे। यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनका बाप जसराज एक लड़ाई में मारा गया। राजा को अनाथों पर तरस आया, उन्हें राजमहल में ले आये और मोहब्बत के साथ अपनी रानी मलिनहा के सुपुर्द कर दिया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परवरिश और लालन-पालन अपने लड़के की तरह किया। जवान होकर यही दोनों भाई बहादुरी में सारी दुनिया में मशहूर हुए। इन्हीं दिलावरों के कारनामों ने महोबे का नाम रोशन कर दिया है।
बड़े लडइया महोबेवाला जिनके बल को वार न पार
आल्हा और ऊदल राजा परमालदेव पर जान कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रानी मलिनहा ने उन्हें पाला, उनकी शादियां कीं, उन्हें गोद में खिलाया। नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्देल राजा का जॉँनिसार रखवाला और राजा परमालदेव का वफादार सेवक बना दिया था। उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमंडी राजा चन्देलों के अधीन हो गये। महोबा राज्य की सीमाएँ नदी की बाढ़ की तरह फैलने लगीं और चन्देलों की शक्ति दूज के चॉँद से बढ़कर पूरनमासी का चॉँद हो गई। यह दोनों वीर कभी चैन से न बैठते थे। रणक्षेत्र में अपने हाथ का जौहर दिखाने की उन्हें धुन थी। सुख-सेज पर उन्हें नींद न आती थी। और वह जमाना भी ऐसा ही बेचैनियों से भरा हुआ था। उस जमाने में चैन से बैठना दुनिया के परदे से मिट जाना था। बात-बात पर तलवांरें चलतीं और खून की नदियॉँ बहती थीं। यहॉँ तक कि शादियाँ भी खूनी लड़ाइयों जैसी हो गई थीं। लड़की पैदा हुई और शामत आ गई। हजारों सिपाहियों, सरदारों और सम्बन्धियों की जानें दहेज में देनी पड़ती थीं। आल्हा और ऊदल उस पुरशोर जमाने की यच्ची तस्वीरें हैं और गोकि ऐसी हालतों ओर जमाने के साथ जो नैतिक दुर्बलताएँ और विषमताएँ पाई जाती हैं, उनके असर से वह भी बचे हुए नहीं हैं, मगर उनकी दुर्बलताएँ उनका कसूर नहीं बल्कि उनके जमाने का कसूर हैं।
आल्हा का मामा माहिल एक काले दिल का, मन में द्वेष पालने वाला आदमी था। इन दोनों भाइयों का प्रताप और ऐश्वर्य उसके हृदय में कॉँटे की तरह खटका करता था। उसकी जिन्दगी की सबसे बड़ी आरजू यह थी कि उनके बड़प्पन को किसी तरह खाक में मिला दे। इसी नेक काम के लिए उसने अपनी जिन्दगी न्यौछावर कर दी थी। सैंकड़ों वार किये, सैंकड़ों बार आग लगायी, यहॉँ तक कि आखिरकार उसकी नशा पैदा करनेवाली मंत्रणाओं ने राजा परमाल को मतवाला कर दिया। लोहा भी पानी से कट जाता है। एक रोज राजा परमाल दरबार में अकेले बैठे हुए थे कि माहिल आया। राजा ने उसे उदास देखकर पूछा, भइया, तुम्हारा चेहरा कुछ उतरा हुआ है। माहिल की आँखों में आँसू आ गये। मक्कार आदमी को अपनी भावनाओं पर जो अधिकार होता है वह किसी बड़े योगी के लिए भी कठिन है। उसका दिल रोता है मगर होंठ हँसते हैं, दिल खुशियों के मजे लेता है मगर आँखें रोती हैं, दिल डाह की आग से जलता है मगर जबान से शहद और शक्कर की नदियॉँ बहती हैं। माहिल बोला-महाराज, आपकी छाया में रहकर मुझे दुनिया में अब किसी चीज की इच्छा बाकी नहीं मगर जिन लोगों को आपने धूल से उठाकर आसमान पर पहुँचा दिया और जो आपकी कृपा से आज बड़े प्रताप और ऐश्वर्यवाले बन गये, उनकी कृतघ्रता और उपद्रव खड़े करना मेरे लिए बड़े दु:ख का कारण हो रही है। परमाल ने आश्चर्य से पूछा- क्या मेरा नमक खानेवालों में ऐसे भी लोग हैं? माहिल- महाराज, मैं कुछ नहीं कह सकता। आपका हृदय कृपा का सागर है मगर उसमें एक खूंखार घड़ियाल आ घुसा है। -वह कौन है? -मैं। राजा ने आश्चर्यान्वित होकर कहा-तुम! महिल- हॉँ महाराज, वह अभागा व्यक्ति मैं ही हूँ। मैं आज खुद अपनी फरियाद लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। अपने सम्बन्धियों के प्रति मेरा जो कर्तव्य है वह उस भक्ति की तुलना में कुछ भी नहीं जो मुझे आपके प्रति है। आल्हा मेरे जिगर का टुकड़ा है। उसका मांस मेरा मांस और उसका रक्त मेरा रक्त है। मगर अपने शरीर में जो रोग पैदा हो जाता है उसे विवश होकर हकीम से कहना पड़ता है। आल्हा अपनी दौलत के नशे में चूर हो रहा है। उसके दिल में यह झूठा खयाल पैदा हो गया है कि मेरे ही बाहु-बल से यह राज्य कायम है। राजा परमाल की आंखें लाल हो गयीं, बोला-आल्हा को मैंने हमेशा अपना लड़का समझा है। माहिल- लड़के से ज्यादा। परमाल- वह अनाथ था, कोई उसका संरक्षक न था। मैंने उसका पालन-पोषण किया, उसे गोद में खिलाया। मैंने उसे जागीरें दीं, उसे अपनी फौज का सिपहसालार बनाया। उसकी शादी में मैंने बीस हजार चन्देल सूरमाओं का खून बहा दिया। उसकी मॉँ और मेरी मलिनहा वर्षों गले मिलकर सोई हैं और आल्हा क्या मेरे एहसानों को भूल सकता है? माहिल, मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। माहिल का चेहरा पीला पड़ गया। मगर सम्हलकर बोला- महाराज, मेरी जबान से कभी झूठ बात नहीं निकली। परमाह- मुझे कैसे विश्वास हो? महिल ने धीरे से राजा के कान में कुछ कह दिया।
आल्हा और ऊदल दोनों चौगान के खेल का अभ्यास कर रहे थे। लम्बे-चौड़े मैदान में हजारों आदमी इस तमाशे को देख रहे थे। गेंद किसी अभागे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता था। चोबदार ने आकर कहा-महाराज ने याद फरमाया है। आल्हा को सन्देह हुआ। महाराज ने आज बेवक्त क्यों याद किया? खेल बन्द हो गया। गेंद को ठोकरों से छुट्टी मिली। फौरन दरबार मे चौबदार के साथ हाजिर हुआ और झुककर आदाब बजा लाया। परमाल ने कहा- मैं तुमसे कुछ मॉँगूँ? दोगे? आल्हा ने सादगी से जवाब दिया-फरमाइए। परमाल-इनकार तो न करोगे? आल्हा ने कनखियों से माहिल की तरफ देखा समझ गया कि इस वक्त कुछ न कुछ दाल में काला है। इसके चेहरे पर यह मुस्कराहट क्यों? गूलर में यह फूल क्यों लगे? क्या मेरी वफादारी का इम्तहान लिया जा रहा है? जोश से बोला-महाराज, मैं आपकी जबान से ऐसे सवाल सुनने का आदी नहीं हूँ। आप मेरे संरक्षक, मेरे पालनहार, मेरे राजा हैं। आपकी भँवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हूँ और मौत से लड़ सकता हूँ। आपकी आज्ञा पाकर में असम्भव को सम्भव बना सकता हूँ आप मुझसे ऐसे सवाल न करें। परमाल- शाबाश, मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद है। आल्हा-मुझे क्या हुक्म मिलता है? परमाल- तुम्हारे पास नाहर घोड़ा है? आल्हा ने ‘जी हॉँ’ कहकर माहिल की तरफ भयानक गुस्से भरी हुई आँखों से देखा। परमाल- अगर तुम्हें बुरा न लगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो। आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने लगा, मैंने अभी वादा किया है कि इनकार न करूँगा। मैंने बात हारी है। मुझे इनकार न करना चाहिए। निश्चय ही इस वक्त मेरी स्वामिभक्ति की परीक्षा ली जा रही है। मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौका और खतरनाक है। इसका तो कुछ गम नहीं। मगर मैं इनकार किस मुँह से करूँ, बेवफा न कहलाऊँगा? मेरा और राजा का सम्बन्ध केवल स्वामी और सेवक का ही नहीं है, मैं उनकी गोद में खेला हूँ। जब मेरे हाथ कमजोर थे, और पॉँव में खड़े होने का बूता न था, तब उन्होंने मेरे जुल्म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हूँ? विचारों की धारा मुड़ी- माना कि राजा के एहसान मुझ पर अनगिनती हैं मेरे शरीर का एक-एक रोआँ उनके एहसानों के बोझ से दबा हुआ है मगर क्षत्रिय कभी अपनी सवारी का घोड़ा दूसरे को नहीं देता। यह क्षत्रियों का धर्म नहीं। मैं राजा का पाला हुआ और एहसानमन्द हूँ। मुझे अपने शरीर पर अधिकार है। उसे मैं राजा पर न्यौछावर कर सकता हूँ। मगर राजपूती धर्म पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, उसे मैं नहीं तोड़ सकता। जिन लोगों ने धर्म के कच्चे धागे को लोहे की दीवार समझा है, उन्हीं से राजपूतों का नाम चमक रहा है। क्या मैं हमेशा के लिए अपने ऊपर दाग लगाऊँ? आह! माहिल ने इस वक्त मुझे खूब जकड़ रखा है। सामने खूंखार शेर है; पीछे गहरी खाई। या तो अपमान उठाऊँ या कृतघ्न कहलाऊँ। या तो राजपूतों के नाम को डुबोऊँ या बर्बाद हो जॉँऊ। खैर, जो ईश्वर की मर्जी, मुझे कृतघ्न कहलाना स्वीकार है, मगर अपमानित होना स्वीकार नहीं। बर्बाद हो जाना मंजूर है, मगर राजपूतों के धर्म में बट्टा लगाना मंजूर नहीं। आल्हा सर नीचा किये इन्हीं खयालों में गोते खा रहा था। यह उसके लिए परीक्षा की घड़ी थी जिसमें सफल हो जाने पर उसका भविष्य निर्भर था। मगर माहिला के लिए यह मौका उसके धीरज की कम परीक्षा लेने वाला न था। वह दिन अब आ गया जिसके इन्तजार में कभी आँखें नहीं थकीं। खुशियों की यह बाढ़ अब संयम की लोहे की दीवार को काटती जाती थी। सिद्ध योगी पर दुर्बल मनुष्य की विजय होती जाती थी। एकाएक परमाल ने आल्हा से बुलन्द आवाज में पूछा- किस दनिधा में हो? क्या नहीं देना चाहते? आल्हा ने राजा से आंखें मिलाकर कहा-जी नहीं। परमाल को तैश आ गया, कड़ककर बोला-क्यों? आल्हा ने अविचल मन से उत्तर दिया-यह राजपूतों का धर्म नहीं है। परमाल-क्या मेरे एहसानों का यही बदला है? तुम जानते हो, पहले तुम क्या थे और अब क्या हो? आल्हा-जी हॉँ, जानता हूँ। परमाल- तुम्हें मैंने बनाया है और मैं ही बिगाड़ सकता हूँ। आल्हा से अब सब्र न हो सका, उसकी आँखें लाल हो गयीं और त्योरियों पर बल पड़ गये। तेज लहजे में बोला- महाराज, आपने मेरे ऊपर जो एहसान किए, उनका मैं हमेशा कृतज्ञ रहूँगा। क्षत्रिय कभी एहसान नहीं भूलता। मगर आपने मेरे ऊपर एहसान किए हैं, तो मैंने भी जो तोड़कर आपकी सेवा की है। सिर्फ नौकरी और नामक का हक अदा करने का भाव मुझमें वह निष्ठा और गर्मी नहीं पैदा कर सकता जिसका मैं बार-बार परिचय दे चुका हूँ। मगर खैर, अब मुझे विश्वास हो गया कि इस दरबार में मेरा गुजर न होगा। मेरा आखिरी सलाम कबूल हो और अपनी नादानी से मैंने जो कुछ भूल की है वह माफ की जाए। माहिल की ओर देखकर उसने कहा- मामा जी, आज से मेरे और आपके बीच खून का रिश्ता टूटता है। आप मेरे खून के प्यासे हैं तो मैं भी आपकी जान का दुश्मन हूँ। ४
आल्हा की मॉँ का नाम देवल देवी था। उसकी गिनती उन हौसले वाली उच्च विचार स्त्रियों में है जिन्होंने हिन्दोस्तान के पिछले कारनामों को इतना स्पृहणीय बना दिया है। उस अंधेरे युग में भी जबकि आपसी फूट और बैर की एक भयानक बाढ़ मुल्क में आ पहुँची थी, हिन्दोस्तान में ऐसी ऐसी देवियॉँ पैदा हुई जो इतिहास के अंधेरे से अंधेरे पन्नों को भी ज्योतित कर सकती हैं। देवल देवी से सुना कि आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या किया तो उसकी आखों भर आए। उसने दोनों भाइयों को गले लगाकर कहा- बेटा ,तुमने वही किया जो राजपूतों का धर्म था। मैं बड़ी भाग्यशालिनी हूँ कि तुम जैसे दो बात की लाज रखने वाले बेटे पाये हैं । उसी रोज दोनों भाइयों महोबा से कूच कर दिया अपने साथ अपनी तलवार और घोड़ो के सिवा और कुछ न लिया। माल –असबाब सब वहीं छोड़ दिये सिपाही की दौलत और इज्जत सबक कुछ उसकी तलवार है। जिसके पास वीरता की सम्पति है उसे दूसरी किसी सम्पति की जरुरत नहीं। बरसात के दिन थे, नदी नाले उमड़े हुए थे। इन्द्र की उदारताओं से मालामाल होकर जमीन फूली नहीं समाती थी । पेड़ो पर मोरों की रसीली झनकारे सुनाई देती थीं और खेतों में निश्चिन्तता की शराब से मतवाल किसान मल्हार की तानें अलाप रहे थे । पहाड़ियों की घनी हरियावल पानी की दर्पन –जैसी सतह और जगंली बेल बूटों के बनाव संवार से प्रकृति पर एक यौवन बरस रहा था। मैदानों की ठंडी-ठडीं मस्त हवा जंगली फूलों की मीठी मीठी, सुहानी, आत्मा को उल्लास देनेवाली महक और खेतों की लहराती हुई रंग बिरंगी उपज ने दिलो में आरजुओं का एक तूफान उठा दिया था। ऐसे मुबारक मौसम में आल्हा ने महोबा को आखिरी सलाम किया । दोनों भाइयो की आँखे रोते रोते लाल हो गयी थीं क्योंकि आज उनसे उनका देश छूट रहा था । इन्हीं गलियों में उन्होंने घुटने के बल चलना सीखा था, इन्ही तालाबों में कागज की नावें चलाई थीं, यही जवानी की बेफिक्रियों के मजे लूटे थे। इनसे अब हमेशा के लिए नाता टूटता था। दोनो भाई आगे बढते जाते थे , मगर बहुत धीरे-धीरे । यह खयाल था कि शायद परमाल ने रुठनेवालों को मनाने के लिए अपना कोई भरोसे का आदमी भेजा होगा। घोड़ो को सम्हाले हुए थे, मगर जब महोबे की पहाड़ियो का आखिरी निशान ऑंखों से ओझल हो गया तो उम्मीद की आखिरी झलक भी गायब हो गयी। उन्होनें जिनका कोई देश नथा एक ठंडी सांस ली और घोडे बढा दिये। उनके निर्वासन का समाचार बहुत जल्द चारों तरफ फैल गया। उनके लिए हर दरबार में जगह थीं, चारों तरफ से राजाओ के सदेश आने लगे। कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे मिलने के लिए भेजा। संदेशों से जो काम न निकला वह इस मुलाकात ने पूरा कर दिया। राजकुमार की खातिदारियाँ और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज खींच ले नई। जयचन्द आंखें बिछाये बैठा था। आल्हा को अपना सेनापति बना दिया।
आल्हा और ऊदल के चले जाने के बाद महोबे में तरह-तरह के अंधेर शुरु हुए। परमाल कमजी शासक था। मातहत राजाओं ने बगावत का झण्डा बुलन्द किया। ऐसी कोई ताकत न रही जो उन झगड़ालू लोगों को वश में रख सके। दिल्ली के राज पृथ्वीराज की कुछ सेना सिमता से एक सफल लड़ाई लड़कर वापस आ रही थी। महोबे में पड़ाव किया। अक्खड़ सिपाहियों में तलवार चलते कितनी देर लगती है। चाहे राजा परमाल के मुलाजियों की ज्यादती हो चाहे चौहान सिपाहियों की, तनीजा यह हुआ कि चन्देलों और चौहानों में अनबन हो गई। लड़ाई छिड़ गई। चौहान संख्या में कम थे। चंदेलों ने आतिथ्य-सत्कार के नियमों को एक किनारे रखकर चौहानों के खून से अपना कलेजा ठंडा किया और यह न समझे कि मुठ्ठी भर सिपाहियों के पीछे सारे देश पर विपत्ति आ जाएगी। बेगुनाहों को खून रंग लायेगा। पृथ्वीराज को यह दिल तोड़ने वाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑंधी की तरह महोबे पर चढ़ दौड़ा और सिरको, जो इलाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्देलों ने भी फौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर फौज बिन दूल्हे की बारात थी। सारी फौज तितर-बितर हो गयी। देश में तहलका मच गया। अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पॉँव फूल गये। परमाल अपने किये पर बहुत पछताया। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी। इस मामले में अगर वह इन नियमों को इतनी सख्ती से पाबन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई। उसने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आई। अब सलाह-मशविरा होने लगा कि पृथ्वीराज से क्योंकर मुकाबिला किया जाये। रानी मलिनहा भी इस मशविरे में शरीक थीं। किसी ने कहा, महोबे के चारों तरफ एक ऊँची दीवार बनायी जाय ; कोई बोला, हम लोग महोबे को वीरान करके दक्खिन को ओर चलें। परमाल जबान से तो कुछ न कहता था, मगर समर्पण के सिवा उसे और कोई चारा न दिखाई पड़ता था। तब रानी मलिनहा खड़ी होकर बोली : ‘चन्देल वंश के राजपूतो, तुम कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या दीवार खड़ी करके तुम दुश्मन को रोक लोगे? झाडू से कहीं ऑंधी रुकती है ! तुम महोबे को वीरान करके भागने की सलाह देते हो। ऐसी कायरों जैसी सलाह औरतें दिया करती हैं। तुम्हारी सारी बहादुरी और जान पर खेलना अब कहॉँ गया? अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि चन्देलों के नाम से राजे थर्राते थे। चन्देलों की धाक बंधी हुई थी, तुमने कुछ ही सालों में सैंकड़ों मैदान जीते, तुम्हें कभी हार नहीं हुई। तुम्हारी तलवार की दमक कभी मन्द नहीं हुई। तुम अब भी वही हो, मगर तुममें अब वह पुरुषार्थ नहीं है। वह पुरुषार्थ बनाफल वंश के साथ महोबे से उठ गया। देवल देवी के रुठने से चण्डिका देवी भी हमसे रुठ गई। अब अगर कोई यह हारी हुई बाजी सम्हाल सकता है तो वह आल्हा है। वही दोनों भाई इस नाजुक वक्त में तुम्हें बचा सकते हैं। उन्हीं को मनाओ, उन्हीं को समझाओं, उन पर महोते के बहुत हक हैं। महोबे की मिट्टी और पानी से उनकी परवरिश हुई है। वह महोबे के हक कभी भूल नहीं सकते, उन्हें ईश्वर ने बल और विद्या दी है, वही इस समय विजय का बीड़ा उठा सकते हैं।’ रानी मलिनहा की बातें लोगों के दिलों में बैठ गयीं।
जगना भाट आल्हा और ऊदल को कन्नौज से लाने के लिए रवाना हुआ। यह दोनों भाई राजकुँवर लाखन के साथ शिकार खेलने जा रहे थे कि जगना ने पहुँचकर प्रणाम किया। उसके चेहरे से परेशानी और झिझक बरस रही थी। आल्हा ने घबराकर पूछा—कवीश्वर, यहॉँ कैसे भूल पड़े? महोबे में तो खैरियत है? हम गरीबों को क्योंकर याद किया? जगना की ऑंखों में ऑंसू भर जाए, बोला—अगर खैरियत होती तो तुम्हारी शरण में क्यों आता। मुसीबत पड़ने पर ही देवताओं की याद आती है। महोबे पर इस वक्त इन्द्र का कोप छाया हुआ है। पृथ्वीराज चौहान महोबे को घेरे पड़ा है। नरसिंह और वीरसिंह तलवारों की भेंट हो चुके है। सिरकों सारा राख को ढेर हो गया। चन्देलों का राज वीरान हुआ जाता है। सारे देश में कुहराम मचा हुआ है। बड़ी मुश्किलों से एक महीने की मौहलत ली गई है और मुझे राजा परमाल ने तुम्हारे पास भेजा है। इस मुसीबत के वक्त हमारा कोई मददगार नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी किम्मत बॅंधाये। जब से तुमने महोबे से नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी हिम्मत बँधाये। जब से तुमने महोबे से नाता तोड़ा है तब से राजा परमाल के होंठों पर हँसी नहीं आई। जिस परमाल को उदास देखकर तुम बेचैन हो जाते थे उसी परमाल की ऑंखें महीनों से नींद को तरसती हैं। रानी महिलना, जिसकी गोद में तुम खेले हो, रात-दिन तुम्हारी याद में रोती रहती है। वह अपने झरोखें से कन्नैज की तरफ ऑंखें लगाये तुम्हारी राह देखा करती है। ऐ बनाफल वंश के सपूतो ! चन्देलों की नाव अब डूब रही है। चन्देलों का नाम अब मिटा जाता है। अब मौका है कि तुम तलवारे हाथ में लो। अगर इस मौके पर तुमने डूबती हुई नाव को न सम्हाला तो तुम्हें हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा क्योंकि इस नाम के साथ तुम्हारा और तुम्हारे नामी बाप का नाम भी डूब जाएगा। आल्हा ने रुखेपन से जवाब दिया—हमें इसकी अब कुछ परवाह नहीं है। हमारा और हमारे बाप का नाम तो उसी दिन डूब गया, जब हम बेकसूर महोबे से निकाल दिए गए। महोबा मिट्टी में मिल जाय, चन्देलों को चिराग गुल हो जाय, अब हमें जरा भी परवाह नहीं है। क्या हमारी सेवाओं का यही पुरस्कार था जो हमको दिया गया? हमारे बाप ने महोबे पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये, हमने गोड़ों को हराया और चन्देलों को देवगढ़ का मालिक बना दिया। हमने यादवों से लोहा लिया और कठियार के मैदान में चन्देलों का झंडा गाड़ दिया। मैंने इन्ही हाथों से कछवाहों की बढ़ती हुई लहर को रोका। गया का मैदान हमीं ने जीता, रीवॉँ का घमण्ड हमीं ने तोड़ा। मैंने ही मेवात से खिराज लिया। हमने यह सब कुछ किया और इसका हमको यह पुरस्कार दिया गया है? मेरे बाप ने दस राजाओं को गुलामी का तौक पहनाया। मैंने परमाल की सेवा में सात बार प्राणलेवा जख्म खाए, तीन बार मौत के मुँह से निकल आया। मैने चालीस लड़ाइयॉँ लड़ी और कभी हारकर न आया। ऊदल ने सात खूनी मार्के जीते। हमने चन्देलों की बहादुरी का डंका बजा दिया। चन्देलों का नाम हमने आसमान तक पहुँचा दिया और इसके यह पुरस्कार हमको मिला है? परमाल अब क्यों उसी दगाबाज माहिल को अपनी मदद के लिए नहीं बुलाते जिसकों खुश करने के लिए मेरा देश निकाला हुआ था ! जगना ने जवाब दिया—आल्हा ! यह राजपूतों की बातें नहीं हैं। तुम्हारे बाप ने जिस राज पर प्राण न्यौछावर कर दिये वही राज अब दुश्मन के पांव तले रौंदा जा रहा है। उसी बाप के बेटे होकर भी क्या तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? वह राजपूत जो अपने मुसीबत में पड़े हुए राजा को छोड़ता है, उसके लिए नरक की आग के सिवा और कोई जगह नहीं है। तुम्हारी मातृभूमि पर बर्बादी की घटा छायी हुई हैं। तुम्हारी माऍं और बहनें दुश्मनों की आबरु लूटनेवाली निगाहों को निशाना बन रही है, क्या अब भी तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? अपने देश की यह दुर्गत देखकर भी तुम कन्नौज में चैन की नींद सो सकते हो? देवल देवी को जगना के आने की खबर हुई। असने फौरन आल्हा को बुलाकर कहा—बेटा, पिछली बातें भूल जाओं और आज ही महोबे चलने की तैयारी करो। आल्हा कुछ जबाव न दे सका, मगर ऊदल झुँझलाकर बोला—हम अब महोबे नहीं जा सकते। क्या तुम वह दिन भूल गये जब हम कुत्तों की तरह महोबे से निकाल दिए गए? महोबा डूबे या रहे, हमारा जी उससे भर गया, अब उसको देखने की इच्छा नहीं हे। अब कन्नौज ही हमारी मातृभूमि है। राजपूतनी बेटे की जबान से यह पाप की बात न सुन सकी, तैश में आकर बोली—ऊदल, तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते हुए शर्म नहीं आती ? काश, ईश्वर मुझे बॉँझ ही रखता कि ऐसे बेटों की मॉँ न बनती। क्या इन्हीं बनाफल वंश के नाम पर कलंक लगानेवालों के लिए मैंने गर्भ की पीड़ा सही थी? नालायको, मेरे सामने से दूर हो जाओं। मुझे अपना मुँह न दिखाओं। तुम जसराज के बेटे नहीं हो, तुम जिसकी रान से पैदा हुए हो वह जसराज नहीं हो सकता। यह मर्मान्तक चोट थी। शर्म से दोनों भाइयों के माथे पर पसीना आ गया। दोनों उठ खड़े हुए और बोले- माता, अब बस करो, हम ज्यादा नहीं सुन सकते, हम आज ही महोबे जायेंगे और राजा परमाल की खिदमत में अपना खून बहायेंगे। हम रणक्षेत्र में अपनी तलवारों की चमक से अपने बाप का नाम रोशन करेंगे। हम चौहान के मुकाबिले में अपनी बहादुरी के जौहर दिखायेंगे और देवल देवी के बेटों का नाम अमर कर देंगे।
दोनों भाई कन्नौज से चले, देवल भी साथ थी। जब वह रुठनेवाले अपनी मातृभूमि में पहुँचे तो सूखें धानों में पानी पड़ गया, टूटी हुई हिम्मतें बंध गयीं। एक लाख चन्देल इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़े थे। बहुत दिनों के बाद वह अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले। ऑंखों ने खुशी के ऑंसू बहाए। राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आया। आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पांव से लिपट गए। तीनों की आंखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया। दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीं कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फौज का सेनापति बनाया गया। वहीं मरने-मारने के लिए सौगन्धें खाई गई। वहीं बहादुरों ने कसमें खाई कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगें। वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों को फैसला करने चले। आज किसी की ऑंखों में और चेहरे पर उदासी के चिन्ह न थे, औरतें हॅंस-हँस कर अपने प्यारों को विदा करती थीं, मर्द हँस-हँसकर स्त्रियों से अलग होते थे क्योंकि यह आखिरी बाजी है, इसे जीतना जिन्दगी और हारना मौत है। उस जगह के पास जहॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मुकाबला हुआ और अठारह दिन तक मारकाट का बाजार गर्म रहा। खूब घमासान लड़ाई हुई। पृथ्वीराज खुद लड़ाई में शरीक था। दोनों दल दिल खोलकर लड़े। वीरों ने खूब अरमान निकाले और दोनों तरफ की फौजें वहीं कट मरीं। तीन लाख आदमियों में सिर्फ तीन आदमी जिन्दा बचे-एक पृथ्वीराज, दूसरा चन्दा भाट तीसरा आल्हा। ऐसी भयानक अटल और निर्णायक लड़ाई शायद ही किसी देश और किसी युग में हुई हो। दोनों ही हारे और दोनों ही जीते। चन्देल और चौहान हमेशा के लिए खाक में मिल गए क्योंकि थानेसर की लड़ाई का फैसला भी इसी मैदान में हो गया। चौहानों में जितने अनुभवी सिपाही थे, वह सब औरई में काम आए। शहाबुद्दीन से मुकाबिला पड़ा तो नौसिखिये, अनुभवहीन सिपाही मैदान में लाये गये और नतीजा वही हुआ जो हो सकता था। आल्हा का कुद पता न चला कि कहॉँ गया। कहीं शर्म से डूब मरा या साधू हो गया। जनता में अब तक यही विश्वास है कि वह जिन्दा है। लोग कहते हैं कि वह अमर हो गया। यह बिल्कुल ठीक है क्योंकि आल्हा सचमुच अमर है अमर है और वह कभी मिट नहीं सकता, उसका नाम हमेशा कायम रहेगा। –जमाना, जनवरी १९१२

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हिन्दी

हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा है और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जानेवाली भाषा है। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है।
हिन्दी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवँ मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं । भारत और अन्य देशों में में ६० करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजीमॉरिशस,गयानासूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता हिन्दी बोलती है।
हिन्दी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी।

हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति

हिन्दी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत शब्द सिन्धु से माना जाता है। ‘सिन्धु’ सिन्ध नदी को कहते थे ओर उसी आधार पर उसके आसपास की भूमि को सिन्धु कहने लगे। यह सिन्धु शब्द ईरानी में जाकर ‘हिन्दू’, हिन्दी और फिर ‘हिन्द’ हो गया। बाद में ईरानी धीरे-धीरे भारत के अधिक भागों से परिचित होते गए और इस शब्द के अर्थ में विस्तार होता गया तथा हिन्द शब्द पूरे भारत का वाचक हो गया। इसी में ईरानी का ईक प्रत्यय लगने से (हिन्द ईक) ‘हिन्दीक’ बना जिसका अर्थ है ‘हिन्द का’। यूनानी शब्द ‘इन्दिका’ या अंग्रेजी शब्द ‘इण्डिया’ आदि इस ‘हिन्दीक’ के ही विकसित रूप हैं। हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफुद्दीन यज्+दी’ के ‘जफरनामा’(१४२४) में मिलता है।
प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने ” हिन्दी एवँ उर्दू का अद्वैत ” शीर्षक आलेख में हिन्दी की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए कहा है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ‘स्’ ध्वनि नहीं बोली जाती थी। ‘स्’ को ‘ह्’ रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के ‘असुर’ शब्द को वहाँ ‘अहुर’ कहा जाता था। अफ़ग़ानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इलाके को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी ‘हिन्द’, ‘हिन्दुश’ के नामों से पुकारा गया है तथा यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को ‘एडजेक्टिव’ के रूप में ‘हिन्दीक’ कहा गया है जिसका मतलब है ‘हिन्द का’। यही ‘हिन्दीक’ शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में ‘इन्दिके’, ‘इन्दिका’, लैटिन में ‘इन्दिया’ तथा अंग्रेज़ी में ‘इण्डिया’ बन गया। अरबी एवँ फ़ारसी साहित्य में हिन्दी में बोली जाने वाली भाषाओं के लिए ‘ज़बान-ए-हिन्दी’, पद का उपयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने ‘ज़बान-ए-हिन्दी’, ‘हिन्दी जुबान’ अथवा ‘हिन्दी’ का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को ‘भाखा’ नाम से पुकराते थे, ‘हिन्दी’ नाम से नहीं।
भाषाविद हिन्दी एवं उर्दू को एक ही भाषा समझते हैं । हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर अधिकांशत: संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करती है । उर्दू, फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर उस पर फ़ारसी और अरबी भाषाओं का प्रभाव अधिक है। व्याकरणिक रुप से उर्दू और हिन्दी में लगभग शत-प्रतिशत समानता है – केवल कुछ विशेष क्षेत्रों में शब्दावली के स्त्रोत (जैसा कि ऊपर लिखा गया है) में अंतर होता है। कुछ विशेष ध्वनियाँ उर्दू में अरबी और फ़ारसी से ली गयी हैं और इसी प्रकार फ़ारसी और अरबी की कुछ विशेष व्याकरणिक संरचना भी प्रयोग की जाती है। अतः उर्दू को हिन्दी की एक विशेष शैली माना जा सकता है।

परिवार

हिन्दी हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार परिवार के अन्दर आती है । ये हिन्द ईरानी शाखा की हिन्द आर्य उपशाखा के अन्तर्गत वर्गीकृत है। हिन्द-आर्य भाषाएँ वो भाषाएँ हैं जो संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं। उर्दूकश्मीरीबंगालीउड़ियापंजाबीरोमानीमराठी नेपाली जैसी भाषाएँ भी हिन्द-आर्य भाषाएँ हैं।

हिन्दी का निर्माण-काल

अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है। हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। १००० ई. के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रुप था – वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ।
अपभ्रंश के संबंध में ‘देशी’ शब्द की भी बहुधा चर्चा की जाती है। वास्तव में ‘देशी’ से देशी शब्द एवं देशी भाषा दोनों का बोध होता है। प्रश्न यह कि देशीय शब्द किस भाषा के थे ? भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में उन शब्दों को ‘देशी’ कहा है ‘जो संस्कृत के तत्सम एवं सद्भव रूपों से भिन्न हैं। ये ‘देशी’ शब्द जनभाषा के प्रचलित शब्द थे, जो स्वभावतया अप्रभंश में भी चले आए थे। जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परंतु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पड़ता है, प्राकृत-व्याकरणों ने संस्कृत के ढाँचे पर व्याकरण लिखे और संस्कृत को ही प्राकृत आदि की प्रकृति माना। अतः जो शब्द उनके नियमों की पकड़ में न आ सके, उनको देशी संज्ञा दी गई।

हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति

हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि –
१. संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है,
२. वह सबसे अधिक सरल भाषा है,
३. वह सबसे अधिक लचीली भाषा है,
४, वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं तथा
५. वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है।
६. हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है।
७. हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासामर्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
८. हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है।
९. हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है।
१०. हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मुहताज नहीं रही।
११. भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन
१२. भारत की सम्पर्क भाषा
१३. भारत की राजभाषा

हिन्दी के विकास की अन्य विशेषताएँ

  • हिन्दी के विकास में राजाश्रय का कोई स्थान नहीं है; इसके विपरीत, हिन्दी का सबसे तेज विकास उस दौर में हुआ जब हिन्दी अंग्रेजी-शासन का मुखर विरोध कर रही थी। जब-जब हिन्दी पर दबाव पड़ा, वह अधिक शक्तिशाली होकर उभरी है।
  • १९वीं शताब्दी तक उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। परन्तु २० वीं सदी के मध्यकाल तक वह भारत की राष्ट्रभाषा बन गई।
  • हिन्दी के विकास में पहले साधु-संत एवं धार्मिक नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उसके बाद हिन्दी पत्रकारिता एवं स्वतंत्रता संग्राम से बहुत मदद मिली; फिर बंबइया फिल्मों से सहायता मिली और अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (टीवी) के कारण हिन्दी समझने-बोलने वालों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हुई है।

हिन्दी का मानकीकरण


भाषा की वर्तनी का अर्थ उस भाषा में शब्दों को वर्णों से अभिव्यक्त करने की क्रिया को कहते हैं। हिंदी में इसकी आवश्यकता काफी समय तक नहीं समझी जाती थी; जबकि अन्य कई भाषाओं, जैसे अंग्रेजी व उर्दू में इसका महत्त्व था। अंग्रेजी व उर्दू में अर्धशताब्दी पहले भी वर्तनी (अंग्रेज़ी:स्पेलिंगउर्दू:हिज्जों) की रटाई की जाती थी जो आज भी अभ्यास में है। हिंदी भाषा का पहला और बड़ा गुण ध्वन्यात्मकता है। हिंदी में उच्चरित ध्वनियों को व्यक्त करना बड़ा सरल है। जैसा बोला जाए, वैसा ही लिख जाए। यह देवनागरी लिपि की बहुमुखी विशेषता के कारण ही संभव था और आज भी है। परन्तु यह बात शत-प्रतिशत अब ठीक नहीं है। इसके अनेक कारण है – क्षेत्रीय आंचलिक उच्चारण का प्रभाव, अनेकरूपता, भ्रम, परंपरा का निर्वाह आदि। जब यह अनुभव किया जाने लगा कि एक ही शब्द की कई-कई वर्तनी मिलती हैं तो इनको अभिव्यक्त करने के लिए किसी सार्थक शब्द की तलाश हुई ( ‘हुई’ शब्द की विविधता द्रष्टव्य है – हुइ, हुई, हुवी )। इस कारण से मानकीकरण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।


हिन्दी वर्णमाला, पूर्ण विवरण सहित

हिंदी शब्दसागर तथा संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर के प्रारंभिक संस्करणों के साथ ही सन् १९५० में प्रकाशित प्रामाणिक हिंदी कोश (आचार्य रामचंद्र वर्मा) में इसका प्रयोग न होना यह संकेत करता है कि इस शताब्दी के मध्य तक इस शब्द की कोई आवश्यकता नहीं समझी गई।[1] छठे दशक में वर्तनी शब्द को स्थान मिला, जिसका संदर्भ तब प्रकाशित हुई दो पुस्तकों में मिलता है:
  • शुद्ध अक्षरी कैसे सीखें –प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव,[2] एवं
  • हिंदी की वर्तनी-प्रो. रमापति शुक्ल,[3]
प्रो. श्रीवास्तव के अनुसार, हिंदी की वर्णमाला पूर्णतः ध्वन्यात्मक होने के कारण हिंदी की वर्तनी की समस्या उतनी गंभीर नहीं जितनी अंग्रेजी की; क्योंकि हिंदी में आज भी लिखित रूप से शब्द अपने उच्चरित रूप से अधिक भिन्न नहीं।
इन्होंने अक्षरी शब्द का प्रयोग किया, जो प्रचलन में नहीं आ सका; क्योंकि उसी समय लेखक ने सिलेबिल के लिए अक्षर का प्रयोग अपने डॉक्टरेट के ग्रंथ हिंदी भाषा में ‘अक्षर’ तथा शब्द की सीमा’ में स्थिर कर दिया। उस समय तक बिहार में ‘विवरण’ बंगाल में ‘बनान’ शब्द हिज्जे स्पेलिंग के लिए चल रहे थे। इसके अलावा प्रचलन में कुछ अन्य शब्द थे -अक्षरन्यास, अक्षर विन्यास, वर्णन्यास, वर्ण विन्यास, आदि। शिक्षा के प्रोफेसर कृष्ण गोपाल रस्तोगी ने अक्षर विन्यासशब्द का प्रयोग बहुत समय तक किया। यही वर्ण विन्यास है। अमरकोश में लिपि के लिए अक्षर विन्यासः तथा लिखितम् का प्रयोग भी पर्याय के रूप में मिलता है।
उपर्युक्त सभी शब्दों के होते हुए भी अब इस अर्थ में ‘वर्तनी’ ही मान्य हो गया और भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालयनई दिल्ली ने न केवल इस शब्द को मान्यता दी, वरन् एकरूपता की दृष्टि से कुछ नियम भी स्थिर किए हैं। वर्तनी शब्द भी संस्कृत भाषा का है, जिसकी व्युत्पत्तियाँ देते हुए आचार्य निशांतकेतु ने ‘वर्तनी’ शब्द के कोशगत अर्थ बताए हैं:- मार्ग, पथ, जीना, जीवन, और दूसरा अर्थ है: पीसना, चूर्ण बनाना, तकुआ [4]। ज्ञानमंडल, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ‘बृहद् हिंदी कोश’ में पहली बार वर्तनी का अर्थ हिज्जे दिया गया। काफी विवेचन के बाद वर्तनी की बड़ी व्यापक परिभाषा स्थिर की गई:
भाषा-साम्राज्य के अंतर्गत भी शब्दों की सीमा में अक्षरों की जो आचार सहिता अथवा उनका अनुशासनगत संविधान है, उसे ही हम वर्तनी की संज्ञा दे सकते हैं।….वर्तनी भाषा का वर्तमान है। वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है, वर्तनी शब्दों का संस्कारिता पद विन्यास है। वर्तनी अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु सूत्र है। यह अक्षर संस्थान और वर्ण क्रम विन्यास है। [5]
आचार्य रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने संस्कृत व्याकरण के वार्तिक से इसका संबंध स्थापित करते हुए व्यक्त किया।वार्तिक एवं वर्तनी दोनों शब्दों के ध्वनिसाम्य एवं अर्थसाम्य में समानता है। सूत्र के द्वारा शब्द साधना का वैज्ञानिक विश्लेषण होता है तथा वार्तिक में सूत्रों द्वारा त्रुटिपूर्ण कथन पर पूर्ण विचार किया जाता है। वर्तनी भी इसी समानांतर प्रक्रिया से गुजरती है। वर्तनी का भी सामूहिक विशुद्ध स्वरूप ही भाषा की समृद्धि के लिए ग्राहृय है। [6] वर्तनी शब्द के विरोधी होते हुए भी आचार्य वाजपेयी इस शब्द के उत्थान हेतु इनका योगदान तथा हिंदी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषण उल्लेखनीय हैं। [7]

मानकीकरण संस्थाएं एवं प्रयास

मानक हिंदी वर्तनी का कार्यक्षेत्र केंदीय हिंदी निदेशालय का है। इस दिशा में कई दिग्गजों ने अपना योगदान दिया, जिनमें से आचार्य किशोरीदास वाजपेयी तथा आचार्य रामचंद्र वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। हिन्दी भाषा के संघ और कुछ राज्यों की राजभाषा स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप देश के भीतर और बाहर हिन्दी सीखने वालों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हो जाने से हिन्दी वर्तनी की मानक पद्धति निर्धारित करना आवश्यक और कालोचित लगा, ताकि हिन्दी शब्दों की वर्तनियों में अधिकाधिक एकरूपता लाई जा सके। तदनुसार, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार ने १९६१ में हिन्दी वर्तनी की मानक पद्धति निर्धारित करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की। इस समिति ने अप्रैल १९६२ में अंतिम रिपोर्ट दी। इस समिति के सदस्यों की सूची संदर्भित परिशिष्ट में दी गई है।[8] समिति की चार बैठकें हुईं जिनमें गंभीर विचार-विमर्श के बाद वर्तनी के संबंध में एक नियमावली निर्धारित की गई। समिति ने तदनुसार, १९६२ में अपनी अंतिम सिफारिशें प्रस्तुत कीं जो सरकार द्वारा अनुमोदित की गईं, और अंततः हिन्दी भाषा के मानकीकरण की सरकारी प्रक्रिया का श्रीगणेश हुआ। यह प्रक्रिया तो सतत है, किंतु मुख्य निर्देश तय हो चुके हैं। ये केन्द्रीय हिन्दी संस्थान से एवं भारत के सभी सरकारी कार्यालयों में प्रसारित किए गए हैं। इनका अनुपालन सुनिश्चित करने हेतु भी संस्थान कार्यरत है।
केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने वर्ष 2003 में देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी के मानकीकरण के लिए अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया था। इस संगोष्ठी में निम्नलिखित नियम निर्धारित किए गए थे :   

2. संयुक्‍त वर्ण
2.1.1 खड़ी पाई वाले व्यंजन
खड़ी पाई वाले व्यंजनों के संयुक्‍त रूप परंपरागत तरीके से खड़ी पाई को हटाकर ही बनाए जाएँ। यथा:–
ख्याति, लग्न, विघ्न
च्चा, छज्जा
नगण्य
कुत्‍ता, पथ्यध्वनि, न्या
प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य
य्या
ल्ले
व्या
श्‍लो
राष्ट्री
स्वीकृति
क्ष्मा
त्र्यंबक
2.1.2 अन्य व्यंजन
2.1.2.1 क और फ/फ़ के संयुक्‍ताक्षर:–
संयुक्‍त, पक्का, दफ़्तर आदि की तरह बनाए जाएँ, न कि संयुक्तक्का की तरह। 
2.1.2.2 ङ, छ, ट, ड, ढ, द और ह के संयुक्‍ताक्षर हल् चिह्‍न लगाकर ही बनाए जाएँ। यथा:–
वाङ्‍मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्‍या, चिह्‍न, ब्रह्‍मा आदि।
(वाङ्मय, बुड्ढा, विद्या, चिह्न, ब्रह्मा नहीं)
2.1.2.3 संयुक्‍त  के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहेंगे। यथा:–
प्रकार, धर्म, राष्ट्र।
2.1.2.4 श्र का प्रचलित रूप ही मान्य होगा। इसे … (इसे मैं टाइप नहीं कर पा रहा हूँ। क्र में क के बदले श लिखा मान लें) के रूप में नहीं लिखा जाएगा। त+र के संयुक्‍त रूप के लिए पहले त्र और … (इसे मैं टाइप नहीं कर पा रहा हूँ। क्र में क के बदले त लिखा मान लें) दोनों रूपों में से किसी एक के प्रयोग की छूट दी गई थी। परंतु अब इसका परंपरागत रूप त्र ही मानक माना जाए। श्र और त्र के अतिरिक्‍त अन्य व्यंजन+र के संयुक्‍ताक्षर 2.1.2.3 के नियमानुसार बनेंगे। जैसे :– क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र आदि।
2.1.2.5 हल् चिह्‍न युक्‍त वर्ण से बनने वाले संयुक्‍ताक्षर के द्‍‌वितीय व्यंजन के साथ इ की मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया जाएगा, न कि पूरे युग्म से पूर्व। यथा:– कुट्‌टिम, चिट्‌ठियाँ, द्‌वितीय, बुद्‌धिमान, चिह्‌नित आदि (कुट्टिम, चिट्ठियाँ, बुद्‍धिमान, चिह्‍नित नहीं)।
टिप्पणी संस्कृत भाषा के मूल श्‍लोकों को उद्‍धृत करते समय संयुक्‍ताक्षर पुरानी शैली से भी लिखे जा सकेंगे। जैसे:– संयुक्त, चिह्न, विद्या, विद्वान, वृद्ध, द्वितीय, बुद्धि आदि। किंतु यदि इन्हें भी उपर्युक्‍त नियमों के अनुसार ही लिखा जाए तो कोई आपत्‍ति नहीं होगी।
2.2 कारक चिह्‍न
2.2.1 हिंदी के कारक चिह्‍न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में प्रातिपदिक से पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– राम ने, राम को, राम से, स्त्री का, स्त्री से, सेवा में आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिह्‍न प्रातिपादिक के साथ मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे :– तूने, आपने, तुमसे, उसने, उसको, उससे, उसपर आदि (मेरेकोमेरेसेआदि रूप व्याकरण सम्मत नहीं हैं)।
2.2.2 सर्वनाम के साथ यदि दो कारक चिह्‍न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक् लिखा जाए। जैसे :– उसके लिए, इसमें से।
2.2.3  सर्वनाम और कारक चिह्‍न के बीच ‘ही’, ‘तक’ आदि का निपात हो तो कारक चिह्‍न को पृथक् लिखा जाए। जैसे :– आप ही के लिए, मुझ तक को।
2.3  क्रिया पद
संयुक्‍त क्रिया पदों में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक्-पृथक् लिखी जाएँ। जैसे :– पढ़ा करता है, आ सकता है, जाया करता है, खाया करता है, जा सकता है, कर सकता है, किया करता था, पढ़ा करता था, खेला करेगा, घूमता रहेगा, बढ़ते चले जा रहे हैं आदि।
2.4  हाइफ़न (योजक चिह्‍न)
2.4.0  हाइफ़न का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
2.4.1  द्‍वंद्‍व समास में पदों के बीच हाइफ़न रखा जाए। जैसे :– राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती संवाद, देख-रेख, चाल-चलन, हँसी-मज़ाक, लेन-देन, पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, खेलना-कूदना आदि।
2.4.2  सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफ़न रखा जाए। जैसे :– तुम-सा, राम-जैसा, चाकू-से तीखे।
2.4.3 तत्पुरुष समास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाए जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे :– भू-तत्व। सामान्यत:तत्पुरुष समास में हाइफ़न लगाने की आवश्यकता नहीं है। जैसे :– रामराज्य, राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि।
2.4.3.1  इसी तरह यदि ‘अ-निख’ (बिना नख का) समस्त पद में हाइफ़न न लगाया जाए तो उसे ‘अनख’ पढ़े जाने से ‘क्रोध’ का अर्थ भी निकल सकता है। अ-नति (नम्रता का अभाव) : अनति (थोड़ा), अ-परस (जिसे किसी ने न छुआ हो) अपरस (एक चर्म रोग), भू-तत्व (पृथ्वी-तत्व) भूतत्व (भूत होने का भाव) आदि समस्त पदों की भी यही स्थिति है। ये सभी युग्म वर्तनी और अर्थ दोनों दृष्टियों से भिन्न-भिन्न शब्द हैं।
2.4.4 कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफ़न का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे :– द्‍‌वि-अक्षर (द्व्यक्षर), द्‍‌वि-अर्थक (द्व्यर्थक) आदि।
2.5 अव्यय
2.5.1 ‘तक’, ‘साथ’ आदि अव्यय सदा पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– यहाँ तक, आपके साथ।
2.5.2 आह, ओह, अहा, ऐ, ही, तो, सो, भी, न, जब, तब, कब, यहाँ, वहाँ, कहाँ, सदा, क्या, श्री, जी, तक, भर, मात्र, साथ, कि, किंतु, मगर, लेकिन, चाहे, या, अथवा, तथा, यथा, और आदि अनेक प्रकार के भावों का बोध कराने वाले अव्यय हैं। कुछ अव्ययों के आगे कारक चिह्‍न भी आते  हैं। जैसे :–अब से, तब से, यहाँ से, वहाँ से, सदा से आदि। नियम के अनुसार अव्यय सदा पृथक् लिखे जाने चाहिए। जैसे :– आप ही के लिए, मुझ तक को, आपके साथ, गज़ भर कपड़ा, देश भर, रात भर, दिन भर, वह इतना भर कर दे, मुझे जाने तो दो, काम भी नहीं बना, पचास रुपए मात्र आदि।
2.5.3 सम्मानार्थक ‘श्री’ और ‘जी’ अव्यय भी पृथक् लिखे जाएँ। जैसे  श्री श्रीराम, कन्हैयालाल जी, महात्मा जी आदि (यदि श्री, जी आदि व्यक्‍तिवाची संज्ञा के ही भाग हों तो मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे :– श्रीराम, रामजी लाल, सोमयाजी आदि)।
2.5.4 समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखे जाएँ (यानी पृथक् नहीं लिखे जाएँ)। जैसे – प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र, निमित्‍तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि। यह सर्वविदित नियम है कि समास न होने पर समस्त पद एक माना जाता है। अत उसे व्यस्त रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है। ‘दस रुपए मात्र’, ‘मात्र दो व्यक्‍ति’ में पदबंध की रचना है। यहाँ मात्र अलग से लिखा जाए (यानी मिलाकर नहीं लिखें)।
2.6 अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी) तथा अनुनासिकता चिह्‍न (चंद्रबिंदु)
2.6.0 अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिकता स्वर का नासिक्‍य विकार। हिंदी में ये दोनों अर्थभेदक भी हैं। अत हिंदी में अनुस्वार (ं) और अनुनासिकता चिह्‍न (ँ) दोनों ही प्रचलित रहेंगे।
2.6.1 अनुस्वार
2.6.1.1 संस्कृत शब्दों का अनुस्वार अन्यवर्गीय वर्णों से पहले यथावत् रहेगा। जैसे – संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, कंस, हिंस्र आदि।
2.6.1.2 संयुक्‍त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण (पंचमाक्षर) के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए। जैसे – पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कंठ, ठंडा, संत, संध्या, मंदिर, संपादक, संबंध आदि (प्कज, गङ्गा, चञ्चल, कञ्जूस, कण्ठ, ठण्डा, सन्त, मन्दिर, सन्ध्या, सम्पादक, सम्बन्ध वाले रूप नहीं)। बंधनी में रखे हुए रूप संस्कृत के उद्‍धरणों में ही मान्य होंगे। हिंदी में बिंदी (अनुस्वार) का प्रयोग करना ही उचित होगा।
2.6.1.3 यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे :– वाङ्‍मय, अन्य, चिन्मय, उन्मुख आदि (वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख आदि रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।
2.6.1.4 पंचम वर्ण यदि द्‍‌वित्व रूप में (दुबारा) आए तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे – अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि (अंन, संमेलन, संमति रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।
2.6.1.5 अंग्रेज़ी, उर्दू से गृहीत शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्‍य व्यंजन को पूरा लिखना अच्छा रहेगा। जैसे :–लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
2.6.1.6 संस्कृत के कुछ तत्सम शब्दों के अंत में अनुस्वार का प्रयोग म् का सूचक है। जैसे – अहं (अहम्), एवं (एवम्), परं (परम्), शिवं (शिवम्)।
2.6.2 अनुनासिकता (चंद्रबिंदु)
2.6.2.1 हिंदी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग अनिवार्य होगा।
2.6.2.2 अनुनासिकता व्यंजन नहीं है, स्वरों का ध्वनिगुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में नाक से भी हवा निकलती है। जैसे :– आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ।
2.6.2.3 चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है। जैसे :– हंस : हँस, अंगना : अँगना, स्वांग (स्व+अंग): स्वाँग आदि में। अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का (अनुस्वार चिहन का) प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट रहेगी। जैसे :– नहीं, में, मैं आदि। कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से चंद्रबिंदु का यथास्थान अवश्‍य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ चंद्रबिंदु का उच्चारण अभीष्ट हो, वहाँ मोटे अक्षरों में उसका यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया जाए। जैसे :– कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना, मेँ, मैँ, नहीँ आदि।
2.7 विसर्ग (:)
2.7.1 संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्‍त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए। जैसे :–‘दु:खानुभूति’ में। यदि उस शब्द के तद्‍भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा। जैसे :– ‘दुख-सुख के साथी’।
2.7.2 तत्सम शब्दों के अंत में प्रयुक्‍त विसर्ग का प्रयोग अनिवार्य है। यथा :– अत:, पुन:, स्वत:, प्राय:, पूर्णत:, मूलत:, अंतत:, वस्तुत:, क्रमश: आदि।
2.7.3 ‘ह’ का अघोष उच्चरित रूप विसर्ग है, अत: उसके स्थान पर (स)घोष ‘ह’ का लेखन किसी हालत में न किया जाए (अत:, पुन: आदि के स्थान पर अतह, पुनह आदि लिखना अशुद्‍ध वर्तनी का उदाहरण माना जाएगा)।
2.7.4 दु:साहस/दुस्साहस, नि:शब्द/निश्शब्द के उभय रूप मान्य होंगे। इनमें द्‍‌वित्व वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए।
2.7.4.1 निस्तेज, निर्वचन, निश्‍चल आदि शब्दों में विसर्ग वाला रूप (नि:तेज, नि:वचन, नि:चल) न लिखा जाए।
2.7.4.2 अंत:करण, अंत:पुर, प्रात:काल आदि शब्द विसर्ग के साथ ही लिखे जाएँ।
2.7.5 तद्‍भव/देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न किया जाए। इस आधार पर छ: लिखना गलत होगा। छह लिखना ही ठीक होगा।
2.7.6 प्रायद्‍वीप, समाप्तप्राय आदि शब्दों में तत्सम रूप में भी विसर्ग नहीं है।
2.7.7 विसर्ग को वर्ण के साथ मिलाकर लिखा जाए, जबकि कोलन चिह्‍न (उपविराम 🙂 शब्द से कुछ दूरी पर हो। जैसे :– अत:, यों है :–
2.8 हल् चिह्‍न (्)
2.8.1 (्) को हल् चिह्‍न कहा जाए न कि हलंत। व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्‍न उस व्यंजन के स्वर रहित होने की सूचना देता है, यानी वह व्यंजन विशुद्‍ध रूप से व्यंजन है। इस तरह से ‘जगत्’ हलंत शब्द कहा जाएगा क्योंकि यह शब्द व्यंजनांत है, स्वरांत नहीं।
2.8.2 संयुक्‍ताक्षर बनाने के नियम 2.1.2.2 के अनुसार ड् छ् ट् ठ् ड् ढ् द् ह् में हल् चिह्‍न का ही प्रयोग होगा। जैसे :– चिह्‍न, बुड्ढा, विद्‍वान आदि में।
2.8.3 तत्‍सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो तब हलंत रूपों का ही प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों। यथा प्राक् :– (प्रागैतिहासिक), वाक्-(वाग्देवी), सत्-(सत्साहित्य), भगवन्-(भगवद्‍भक्‍ति), साक्षात्-(साक्षात्कार), जगत्-(जगन्नाथ), तेजस्-(तेजस्वी), विद्‍युत्-(विद्‍युल्लता) आदि। तत्सम संबोधन में हे राजन्, हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होंगे। हिंदी शैली में हे राजा, हे भगवान लिखे जाएँ। जिन शब्दों में हल् चिहन लुप्‍त हो चुका हो, उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्‍न न किया जाए। जैसे – महान, विद्‍वान आदि; क्योंकि हिंदी में अब ‘महान’ से ‘महानता’ और ‘विद्‍वानों’ जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं।
2.8.4 व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही शब्द दिए जाएँ, जो शब्द रचना को समझने के लिए आवश्‍यक हों (उत् + नयन = उन्नयन, उत् + लास = उल्लास) या अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों (जगदीश, जगन्माता, जगज्जननी)।
2.8.5 हिंदी में ह्रदयंगम (ह्रदयम् + गम), उद्‍धरण (उत्/उद् + हरण), संचित (सम् + चित्) आदि शब्दों का संधि-विच्छेद समझाने की आवश्‍यकता प्रतीत नहीं होती। इसी तरह ‘साक्षात्कार’, ‘जगदीश’, ‘षट्कोश’ जैसे शब्दों के अर्थ को समझाने की आवश्‍यकता हो तभी उनकी संधि का हवाला दिया जाए। हिंदी में इन्हें स्वतंत्र शब्दों के रूप में ग्रहण करना ही अच्छा होगा।
2.9 स्वन परिवर्तन
2.9.1 संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जाए। अत: ‘ब्रह्‍मा’ को ‘ब्रम्हा’, ‘चिह्‍न’ को ‘चिन्ह’, ‘उऋण’ को ‘उरिण’ में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ग्रहीत, दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनाधिकार आदि अशुद्‍ध प्रयोग ग्राह्‍य नहीं हैं। इनके स्थान पर क्रमश: गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए।
2.9.2 जिन तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में एक द्‍‌वित्वमूलक व्यंजन लुप्त हो गया है उसे न लिखने की छूट है। जैसे :– अर्द्‌ध > अर्ध, तत्‍त्व > तत्व आदि।
2.10 ‘ऐ’, ‘औ’ का प्रयोग
2.10.1 हिंदी में ऐ (ै), औ (ौ) का प्रयोग दो प्रकार के उच्चारण को व्यक्‍त करने के लिए होता है। पहले प्रकार का उच्चारण ‘है’, ‘और’ आदि में मूल स्वरों की तरह होने लगा है; जबकि दूसरे प्रकार का उच्चारण ‘गवैया’, ‘कौवा’ आदि शब्दों में संध्यक्षरों के रूप में आज भी सुरक्षित है। दोनों ही प्रकार के उच्चारणों को व्यक्‍त करने के लिए इन्हीं चिह्‍नों (ऐ, ै, औ, ौ) का प्रयोग किया जाए। ‘गवय्या’, ‘कव्वा’ आदि संशोधनों की आवश्‍यकता नहीं है। अन्य उदाहरण हैं :– भैया, सैयद, तैयार, हौवा आदि।
2.10.2 दक्षिण के अय्यर, नय्यर, रामय्या आदि व्यक्‍तिनामों को हिंदी उच्चारण के अनुसार ऐयर, नैयर, रामैया आदि न लिखा जाए, क्योंकि मूलभाषा में इसका उच्चारण भिन्न है।
2.10.3 अव्वल, कव्वाल, कव्वाली जैसे शब्द प्रचलित हैं। इन्हें लेखन में यथावत् रखा जाए।
2.10.4 संस्कृत के तत्सम शब्द ‘शय्या’ को ‘शैया’ न लिखा जाए।
2.11 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्‍यय ‘कर’
2.11.1 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय ‘कर’ क्रिया से मिलाकर लिखा जाए। जैसे :– मिलाकर, खा-पीकर, रो-रोकर आदि।
2.11.2 कर + कर से ‘करके’ और करा + कर से ‘कराके’ बनेगा।
2.12 वाला
2.12.1 क्रिया रूपों में ‘करने वाला’, ‘आने वाला’, ‘बोलने वाला’ आदि को अलग लिखा जाए। जैसे :– मैं घर जाने वाला हूँ, जाने वाले लोग।
2.12.2 योजक प्रत्‍यय के रूप में ‘घरवाला’, ‘टोपीवाला’ (टोपी बेचने वाला), दिलवाला, दूधवाला आदि एक शब्द के समान ही लिखे जाएँगे।
2.12.3 ‘वाला’ जब प्रत्यय के रूप में आएगा तब तो 2.12.2 के अनुसार मिलाकर लिखा जाएगा; अन्यथा अलग से। यह वाला, यह वाली, पहले वाला, अच्छा वाला, लाल वाला, कल वाली बात आदि में वाला निर्देशक शब्द है। अत इसे अलग ही लिखा जाए। इसी तरह लंबे बालों वाली लड़की, दाढ़ी वाला आदमी आदि शब्दों में भी वाला अलग लिखा जाएगा। इससे हम रचना के स्तर पर अंतर कर सकते हैं। जैसे :–
गाँववाला –  villager     गाँव वाला मकान  –  village house
2.13 श्रुतिमूलक ‘य’, ‘व’
2.13.1 जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ न किया जाए, अर्थात् किए : किये, नई : नयी, हुआ : हुवा आदि में से पहले (स्वरात्मक) रूपों का प्रयोग किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाए। जैसे :– दिखाए गए, राम के लिए, पुस्तक लिए हुए, नई दिल्ली आदि।
2.13.2 जहाँ ‘य’ श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल तत्व हो वहाँ वैकल्पिक श्रुतिमूलक स्वरात्मक परिवर्तन करने की आवश्‍यकता नहीं है। जैसे :– स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि (अर्थात् यहाँ स्थाई, अव्यईभाव, दाइत्व नहीं लिखा जाएगा)।
2.14 विदेशी ध्वनियाँ
2.14.1 उर्दू शब्द
उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्‍ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्‍यक हो, वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्‍ते लगाए जाएँ। जैसे :– खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन : हाइफ़न आदि।
2.14.2 अंग्रेज़ी शब्द
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों में अर्धविवृत ‘ओ’ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्‍ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर ‘आ’ की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए (ऑ, ॉ)। जहाँ तक अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं से नए शब्द ग्रहण करने और उनके देवनागरी लिप्यंतरण का संबंध है, अगस्त-सितंबर, 1962 में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्‍वारा वैज्ञानिक शब्दावली पर आयोजित भाषाविदों की संगोष्ठी में अंतरराष्ट्रीय शब्दावली के देवनागरी लिप्यंतरण के संबंध में की गई सिफ़ारिश उल्लेखनीय है। उसमें यह कहा गया है कि अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए कि उसके वर्तमान देवनागरी वर्णों में अनेक नए संकेत-चिह्‍न लगाने पड़ें। अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मानक अंग्रेज़ी उच्चारण के अधिक-से-अधिक निकट होना चाहिए।
2.14.3 द्‍‌विधा रूप वर्तनी
हिंदी में कुछ प्रचलित शब्द ऐसे हैं जिनकी वर्तनी के दो-दो रूप बराबर चल रहे हैं। विद्‍वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है। कुछ उदाहरण हैं :–गरदन/गर्दन, गरमी/गर्मी, बरफ़/बर्फ़, बिलकुल/बिल्कुल, सरदी/सर्दी, कुरसी/कुर्सी, भरती/भर्ती, फ़ुरसत/फ़ुर्सत, बरदाश्त/बर्दाश्त, वापस/वापिस, आखिरकार/आखीरकार, बरतन/बर्तन, दुबारा/दोबारा, दुकान/दूकान, बीमारी/बिमारी आदि। इन वैकल्पिक रूपों में से पहले वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए। विस्तार के लिए देखिए – परिशिष्ट 4 (पृष्ठ 32-35)
2.15 अन्य नियम
2.15.1 शिरोरेखा का प्रयोग प्रचलित रहेगा।
2.15.2 फ़ुलस्टॉप (पूर्ण विराम) को छोड़कर शेष विरामादि चिह्‍न वही ग्रहण कर लिए गए हैं जो अंग्रेज़ी में प्रचलित हैं। यथा :– – (हाइफ़न/योजक चिह्‍न), – (डैश/निर्देशक चिह्‍न), :– (कोलन एंड डेश/विवरण चिह्‍न), , (कोमा/अल्पविराम), ; (सेमीकोलन/अर्धविराम), : (कोलन/उपविराम), ? (क्वश्‍चनमार्क/प्रश्‍न चिह्‍न), ! (साइन ऑफ़ इंटेरोगेशन/विस्मयसूचक चिह्‍न), ‘ (अपोस्ट्राफ़ी/ऊर्ध्व अल्प विराम), ” ” (डबल इन्वर्टेड कोमाज़/उद्‍धरण चिह्‍न), ‘ ‘ (सिंगल इन्वर्टेड कोमा/शब्द चिह्‍न). ( ), { }, [ ] (तीनों कोष्ठक), … (लोप चिह्‍न), (संक्षेपसूचक चिह्‍न)/(हंसपद)। विस्तृत नियमों के लिए देखिए- परिशिष्ट – 5 (पृष्ठ 36-47)
2.15.3 विसर्ग के चिह्‍न को ही कोलन का चिह्‍न मान लिया गया है। पर दोनों में यह अंतर रखा गया है कि विसर्ग वर्ण से सटाकर और कोलन शब्द से कुछ दूरी पर रहे। (पूर्व संदर्भ 2.7.7 और 2.7.7.1)

2.15.4 पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई (।) का ही प्रयोग किया जाए। वाक्य के अंत में बिंदु (अंग्रेज़ी फ़ुलस्टॉप .) का नहीं।


भाषाविदों के अनुसार हिन्दी के चार प्रमुख रूप या शैलियाँ हैं :
(१) उच्च हिन्दी – हिन्दी का मानकीकृत रूप, जिसकी लिपि देवनागरी है। इसमें संस्कृत भाषा के कई शब्द है, जिन्होंने फ़ारसी और अरबी के कई शब्दों की जगह ले ली है। इसे शुद्ध हिन्दी भी कहते हैं। आजकल इसमें अंग्रेज़ी के भी कई शब्द आ गये हैं (ख़ास तौर पर बोलचाल की भाषा में)। यह खड़ीबोली पर आधारित है, जो दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाती थी।
(२) दक्खिनी – हिन्दी का वह रूप जो हैदराबाद और उसके आसपास की जगहों में बोला जाता है। इसमें फ़ारसी-अरबी के शब्द उर्दू की अपेक्षा कम होते हैं।
(३) रेख़्ता – उर्दू का वह रूप जो शायरी में प्रयुक्त होता है।
(४) उर्दू – हिन्दी का वह रूप जो देवनागरी लिपि के बजाय फ़ारसी-अरबी लिपि में लिखा जाता है। इसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं,और फ़ारसी-अरबी के शब्द अधिक। यह भी खड़ीबोली पर ही आधारित है।
हिन्दी और उर्दू दोनों को मिलाकर हिन्दुस्तानी भाषा कहा जाता है । हिन्दुस्तानी मानकीकृत हिन्दी और मानकीकृत उर्दू के बोलचाल की भाषा है । इसमें शुद्ध संस्कृत और शुद्ध फ़ारसी-अरबी दोनों के शब्द कम होते हैं और तद्भव शब्द अधिक । उच्च हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा है (अनुच्छेद ३४३, भारतीय संविधान) । यह इन भारयीय राज्यों की भी राजभाषा है : उत्तर प्रदेशबिहारझारखंडमध्य प्रदेशउत्तरांचलहिमाचल प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थानहरियाणा, और दिल्ली। इन राज्यों के अतिरिक्तमहाराष्ट्रगुजरातपश्चिम बंगालपंजाब, और हिन्दी भाषी राज्यों से लगते अन्य राज्यों में भी हिन्दी बोलने वालों की अच्छी संख्या है। उर्दू पाकिस्तान की और भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर की राजभाषा है । यह लगभग सभी ऐसे राज्यों की सह-राजभाषा है; जिनकी मुख्य राजभाषा हिन्दी है । दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तानी को कहीं भी संवैधानिक दर्जा नहीं मिला हुआ है ।
हिन्दी शब्दावली में मुख्यतः दो वर्ग हैं-
  • तत्सम शब्द– ये वो शब्द हैं जिनको संस्कृत से बिना कोई रूप बदले ले लिया गया है। जैसे अग्नि, दुग्ध दन्त , मुख ।
  • तद्भव शब्द– ये वो शब्द हैं जिनका जन्म संस्कृत या प्राकृत में हुआ था, लेकिन उनमें काफ़ी ऐतिहासिक बदलाव आया है। जैसे– आग, दूध, दाँत , मुँह ।
इसके अतिरिक्त हिन्दी में कुछ देशज शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। देशज का अर्थ है – ‘जो देश में ही उपजा या बना हो’ । जो न तो विदेशी हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना है। ऐसा शब्द जो न संस्कृत हो, न संस्कृत का अपभ्रंश हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो, बल्कि किसी प्रदेश के लोगों ने बोल-चाल में जों ही बना लिया हो। जैसे- खटिया, लुटिया
इसके अलावा हिन्दी में कई शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि से भी आये हैं। इन्हें विदेशी शब्द कह सकते हैं।
जिस हिन्दी में अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी के शब्द लगभग पूरी तरह से हटा कर तत्सम शब्दों को ही प्रयोग में लाया जाता है, उसे “शुद्ध हिन्दी” कहते हैं ।
देवनागरी लिपि में हिन्दी की ध्वनियाँ इस प्रकार हैं :

स्वर

ये स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ीबोली) के लिये दिये गये हैं ।
वर्णाक्षर “प” के साथ मात्रा आईपीएउच्चारण “प्” के साथ उच्चारण IASTसमतुल्य अंग्रेज़ी समतुल्य हिन्दी में वर्णन
/ ə / / pə / a short or long en:Schwa: as the a in above or ago बीच का मध्य प्रसृत स्वर
पा / α: / / pα: / ā long en:Open back unrounded vowel: as the a in father दीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर
पि / i / / pi / i short en:close front unrounded vowel: as i in bit ह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर
पी / i: / / pi: / ī long en:close front unrounded vowel: as i in machine दीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर
पु / u / / pu / u short en:close back rounded vowel: as u in put ह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर
पू / u: / / pu: / ū long en:close back rounded vowel: as oo in school दीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर
पे / e: / / pe: / e long en:close-mid front unrounded vowel: as a in game (not a diphthong) दीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर
पै / æ: / / pæ: / ai long en:near-open front unrounded vowel: as a in cat दीर्घ लगभग-विवृत अग्र प्रसृत स्वर
पो / ο: / / pο: / o long en:close-mid back rounded vowel: as o in tone (not a diphthong) दीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर
पौ / ɔ: / / pɔ: / au long en:open-mid back rounded vowel: as au in caught दीर्घ अर्धविवृत पश्व वर्तुल स्वर
<none> <none> / ɛ / / pɛ / <none> short en:open-mid front unrounded vowel: as e in get ह्रस्व अर्धविवृत अग्र प्रसृत स्वर
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में ये वर्णाक्षर भी स्वर माने जाते हैं :
  • ऋ — आधुनिक हिन्दी में “रि” की तरह
  • अं — पंचचम वर्ण – न्, म्, ङ्, ञ्, ण् के लिए या स्वर का नासिकीकरण करने के लिए (अनुस्वार)
  • अँ — स्वर का अनुनासिकीकरण करने के लिए (चन्द्रबिन्दु)
  • अः — अघोष “ह्” (निःश्वास) के लिए (विसर्ग)

व्यंजन

जब किसी स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर ‘अ’ माना जाता है । स्वर के न होने को हलन्त्‌ अथवा विराम से दर्शाया जाता है । जैसे क्‌ ख्‌ ग्‌ घ्‌ ।
स्पर्श (Plosives)
अल्पप्राण
अघोष
महाप्राण
अघोष
अल्पप्राण
घोष
महाप्राण
घोष
नासिक्य
कण्ठ्य क / kə /
k; अंग्रेजी: skip
ख / khə /
kh; अंग्रेजी: cat
ग / gə /
g; अंग्रेजी: game
घ / gɦə /
gh; Aspirated /g/
ङ / ŋə /
n; अंग्रेजी: ring
तालव्य च / cə / or / tʃə /
ch; अंग्रेजी: chat
छ / chə / or /tʃhə/
chh; Aspirated /c/
ज / ɟə / or / dʒə /
j; अंग्रेजी: jam
झ / ɟɦə / or / dʒɦə /
jh; Aspirated /ɟ/
ञ / ɲə /
n; अंग्रेजी: finch
मूर्धन्य ट / ʈə /
t; अमेरिकी अं.: hurting
ठ / ʈhə /
th; Aspirated /ʈ/
ड / ɖə /
d; अमेरिकी अं.: murder
ढ / ɖɦə /
dh; Aspirated /ɖ/
ण / ɳə /
n; अमेरिकी अं.: hunter
दन्त्य त / t̪ə /
t; Spanish: tomate
थ / t̪hə /
th; Aspirated /t̪/
द / d̪ə /
d; Spanish: donde
ध / d̪ɦə /
dh; Aspirated /d̪/
न / nə /
n; अंग्रेजी: name
ओष्ठ्य प / pə /
p; अंग्रेजी: spin
फ / phə /
ph; अंग्रेजी: pit
ब / bə /
b; अंग्रेजी: bone
भ / bɦə /
bh; Aspirated /b/
म / mə /
m; अंग्रेजी: mine
स्पर्शरहित (Non-Plosives)
तालव्य मूर्धन्य दन्त्य/
वर्त्स्य
कण्ठोष्ठ्य/
काकल्य
अन्तस्थ य / jə /
y; अंग्रेजी: you
र / rə /
r; Scottish Eng: trip
ल / lə /
l; अंग्रेजी: love
व / ʋə /
v; अंग्रेजी: vase
ऊष्म/
संघर्षी
श / ʃə /
sh; अंग्रेजी: ship
ष / ʂə /
sh; Retroflex /ʃ/
स / sə /
s; अंग्रेजी: same
ह / ɦə / or / hə /
h; अंग्रेजी home
ध्यातव्य
  • इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त वयंजन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी और वैदिक संस्कृत में सभी का प्रयोग किया जाता है ।
  • संस्कृत में  का उच्चारण ऐसे होता था : जीभ की नोक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर  जैसी आवाज़ करना । शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिनि शाखा में कुछ वाक़्यात में  का उच्चारण  की तरह करना मान्य था । आधुनिक हिन्दी में  का उच्चारण पूरी तरह  की तरह होता है ।
  • हिन्दी में  का उच्चारण कभी-कभी ड़ँ की तरह होता है, यानी कि जीभ मुँह की छत को एक ज़ोरदार ठोकर मारती है । परन्तु इसका शुद्ध उच्चारण जिह्वा को मूर्धा (मुँह की छत. जहाँ से ‘ट’ का उच्चार करते हैं) पर लगा कर  की तरह का अनुनासिक स्वर निकालकर होता है।

नुक़्तायुक्त ध्वनियाँ

ये ध्वनियाँ मुख्यत: अरबी और फ़ारसी भाषाओं से उधार ली गयी हैं। इनका स्रोत संस्कृत नहीं है। देवनागरी लिपि में ये सबसे क़रीबी संस्कृत के वर्णाक्षर के नीचे नुक़्ता(बिन्दु) लगाकर लिखे जाते हैं किन्तु आजकल हिन्दी में नुक्ता लगाने की प्रथा को लोग अनावश्यक मानने लगे हैं और ऐसा माना जाने लगा है कि नुक्ते का प्रयोग केवल तब किया जाय जब अरबी/उर्दू/फारसी वाले अपनी भाषा को देवनागरी में लिखना चाहते हों।
वर्णाक्षर
(आईपीए उच्चारण)
उदाहरण वर्णन अंग्रेज़ी में वर्णन ग़लत उच्चारण
क़ (/ q /) क़त्ल अघोष अलिजिह्वीय स्पर्श Voiceless uvular stop  (/ k /)
ख़ (/ x or χ /) ख़ास अघोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षी Voiceless uvular or velar fricative  (/ kh /)
ग़ (/ ɣ or ʁ /) ग़ैर घोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षी Voiced uvular or velar fricative  (/ g /)
फ़ (/ f /) फ़र्क अघोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षी Voiceless labio-dental fricative  (/ ph /)
ज़ (/ z /) ज़ालिम घोष वर्त्स्य संघर्षी Voiced alveolar fricative  (/ dʒ /)
ड़ (/ ɽ /) पेड़ अल्पप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्त Unaspirated retroflex flap  (/ ɖ /)
ढ़ (/ ɽh /) पढ़ना महाप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्त Aspirated retroflex flap  (/ ɖʱ /)
हिन्दी में ड़ और ढ़ व्यंजन फ़ारसी या अरबी से नहीं लिये गये हैं, न ही ये संस्कृत में पाये जाये हैं। वास्तव में ये संस्कृत के साधारण , “ळ” और  के बदले हुए रूप हैं।

भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी

देवनागरी लिपी में लिखित हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। भारतीय संविधान में इससे सम्बन्धित प्राविधानों की जानकारी के लिये विस्तृत लेख भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी देखेँ।

हिन्दी की गिनती

हिन्दी की गिनती दशमलव पर आधारित है।
हिन्दी अंक :-          

व्याकरण

व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना, शुद्ध पढ़ना और शुद्ध लिखना आता है। किसी भी विकसित भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने के निश्चित नियम होते हैं भाषा की शुद्धता व सुंदरता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। ये नियम भी व्याकरण के अंतर्गत आते हैं। व्याकरण भाषा के अध्ययन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जिसे भाषा विज्ञान कहते हैं। यह लेख हिन्दी भाषा के व्याकरण के विषय में है।
भाषाविज्ञान के तीन महत्वपूर्ण भाग होते हैं:
  • वर्ण विभाग– इसमें अक्षरों या वर्णों से संबंधित नियमों का ज्ञान होता है।
  • शब्द विभाग– इसमें शब्दों के भेद आदि बताए जाते हैं।
  • वाक्य विभाग– इसमें वाक्य रचना के नियमों का वर्णन होता है।


  1. विराम चिह्न के लिए खड़ी पाई (।) का प्रयोग करें, न कि अंग्रेजी के फुल-स्टोप(.) का।
  2. अंकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय अंकों का प्रयोग करें – 1,2,3…. न कि हिंदी अंकों का –  १,२,३।
  3. सदा यी-ई वाली वर्तनी अपनाएं – गए, गई, हुए, लताएं, जाएंगे, लाए, लाई, इत्यादि, न कि गये, गयी, हुये, लतायें, लाये, लायी, इत्यादि।
  4. नुक्ता का प्रयोग केवल ड और ढ में करें (पेड़, पढ़)। जमीन, कानून, जवाब, फाइल, गरीब आदि में नुक्ता नहीं लगाई जाती है, ये सब हिंदी के अपने शब्द हैं। तेरहवीं सदी के तुलसीदास तक ने इनमें से कुछ शब्दों का प्रयोग किया है जैसे गरीबनवाज, जमीन, कानून, आदि, और कहीं भी नुक्ता नहीं है। लेकिन आजकल उर्दू भी देवनागरी लिपि में लिखी जाने लगी है। देवनागरी में जब उर्दू लिखी जाती है, तब ज, ग, क, फ आदि में नुक्ता लगाया जाता है, लेकिन हिंदी में इन व्यंजनों में नुक्ता नहीं लगता है।
  5. आजकल चंद्रबिंदु (ँ) का प्रयोग नहीं होता है, उसकी जगह अनुस्वार (ं) चलता है। इससे वेब साइट आदि में सफाई आती है क्योंकि जब पंक्तियों के बीच जगह कम हो, नीचे की पंक्ति के शब्दों के चंद्रबिंदु ऊपर की पंक्ति के शब्दों की उ, ऊ, ऋ आदि मात्राओं से उलझ जाते हैं जिससे पाठ अपाठ्य हो जाता है। इसलिए लताएं, हां, हंस आदि लिखें, न कि लताएँ, हाँ, हँस इत्यादि। अधिकांश हिंदी पत्र-पत्रिकाओं और हिंदी प्रकाशकों ने इस नियम को अपना लिया है।
  6. डाक्टर, आस्ट्रेलिया, फोकस आदि को उल्टा टोप (ॉ) लगाकर न लिखें। यह स्वर हिंदी का अपना नहीं है, अंग्रेजी के कुछ शब्दों में सही उच्चारण दर्शाने के लिए गढ़ा गया है। व्याकरण इसके प्रयोग की सम्मति नहीं देता है। अब डाक्टर, आस्ट्रेलिया, फोकस आदि हिंदी के अपने शब्द बन गए हैं और हिंदी भाषी इन्हें ऐसे ही बोलते हैं। डाक्टर से तो डाक्टरनी स्त्रीलिंग रूप भी बन चुका है। इस तरह के विदेशी भाषाओं के शब्दों को हिंदी में लिखते समय हिंदी की उच्चारण पद्धति का ध्यान में रखना चाहिए और यदि आवश्यक हो, इनके वर्तनी को बदल देना चाहिए, न कि नए स्वर ईजाद करके भाषा को अपाठ्य बनाना चाहिए।
  7. विद्वान, प्राचीन, पुस्तक, पुष्प आदि संस्कृत से आए शब्दों में हल चिह्न (्) न दें। हिंदी के सभी शब्द स्वतः ही व्यंजनांत हैं, उनमें हल चिह्न देना व्यर्थ है। ये सब शब्द हिंदी के अपने शब्द हो गए हैं और इन्हें बिना हल चिह्न के ही लिखा जाता है।
  8. दुख हिंदी का अपना तद्भव शब्द है, इसे दुःख के रूप में न लिखें।
  9. संक्षेपाक्षरों को जोड़कर लिखें, उनके अक्षरों के बीच रिक्त स्थान या बिंदी न रखें, यथा – भाजपा, न कि भा ज पा या भा.ज.पा., यूएसए न कि यू एस ए या यू.एस.ए., एचटीएमएल न कि एच टी एम एल या एच.टी.एम.एल., इत्यादि।
  10. दुहरा, दुबारा दुपहर, दुतल्ला, दुपट्टा, दुअन्नी आदि सही हैं, इन्हें  दोबारा, दोपहर, दोतल्ला, दोअन्नी आदि के रूप में न लिखें। हिंदी में संख्यावाचक प्रत्यय बनाते समय संख्यावाचक शब्द का ह्रस्वीकरण होता है – यथा

      एक – इक (इकतारा, इकन्नी, इकलौती)      दो – दु (दुपहर, दुबारा, दुपट्टा, दुअन्नी)      तीन – ति (तिपाया, तिकोना)      चार – चौ (चौपाया)      पांच – पंच (पंचमेल, पंचवटी)      छह – छि (छियासी, छिहत्तर)      सात –सत (सतरंगा, सतफेरा)      आठ – अठ (अठन्नी)      नौ – नव (नवदीप)  कुछ उपयोगी संदर्भ ग्रंथ कोश1.     फादर कामिल बुल्के का अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, प्रकाशक – सुल्तान-चंद कंपनी, दिल्ली2.      बृहद वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली, दो खंड, प्रकाशक, मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार। व्याकरण

  1. हिंदी व्याकरण, कामता प्रसाद गुरु, काशी नागरी प्रचारिणी सभा।
  2. हिंदी शब्दानुशासन, किशोरीदास वाजपेयी, काशी नागरी प्रचारिणी सभा।
  3. किशोरीदास वाजपेयी की अन्य भाषा संबंधी किताबें – हिंदी शब्द मीमांसा, हिंदी निघंटु, अच्छी हिंदी का नमूना, हिंदी वर्तनी और शब्द चयन, इत्यादि। ये सब अब वाणी प्रकाशन, दिल्ली से पुनः प्रकाशित हुई हैं। किशोरीदास वाजपेयी की रचनावली भी पांच खंडों में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई हैं जिसमें उपर्युक्त सभी किताबें शामिल हैं।

संदर्भ

  1.  विमिसाहित्य पर हिन्दी में वर्तनी
  2.  श्रीवास्तव, प्रो. मुरलीधर (१९६०). शुद्ध अक्षरी कैसे सीखें. पटना: भारती भवन.
  3.  शुक्ल, प्रो. रमापति (१९६०). शुद्ध अक्षरी कैसे सीखेंवाराणसीशब्दलोक प्रकाशन.
  4.  (आप्टे का कोश)
  5.  भाटिया, कैलाश चन्द्र (प्रभात प्रकाशन). हिन्दी की मानक वर्तनी. नई दिल्ली: प्रभात प्रकाशन. pp. 144. 2645. का पृष्ठ २
  6.  (नवभारत टाइम्स दिनांक 19.3.14)
  7.  आचार्य वाजपेयी आजीवन इस समस्या से जूझते रहे, पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लिखते रहे और पुस्तकें भी प्रकाशित करते रहे, जिनमें से शब्द मीमांसा प्रथम संस्करण, 1958 ई.) तथा हिंदी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषण उल्लेखनीय हैं।
  8.  विधि शब्दावली. १९८३.

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राजभाषा

  1. राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है— राज–काज की भाषा। जो भाषा देश के राजकीय कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है, वह ‘राजभाषा’ कहलाती हैं राजाओं–नवाबों के ज़माने में इसे ‘दरबारी भाषा’ कहा जाता था।
  2. राजभाषा सरकारी काम–काज चलाने की आवश्यकता की उपज होती है।
  3. स्वशासन आने के पश्चात् राजभाषा की आवश्कता होती है। प्रायः राष्ट्रभाषा ही स्वशासन आने के पश्चात् राजभाषा बन जाती है। भारत में भी राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।
  4. राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिन्दी को 14 सितंबर 1949 ई. को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया। इसीलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को ‘हिन्दी दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है।
  5. राजभाषा देश को अपने प्रशासनिक लक्ष्यों के द्वारा राजनीतिक–आर्थिक इकाई में जोड़ने का काम करती है। अर्थात् राजभाषा की प्राथमिक शर्त राजनीतिक प्रशासनिक एकता क़ायम करना है।
  6. राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र सीमित होता है, यथा—वर्तमान समय में भारत सरकार के कार्यालयों एवं कुछ राज्यों- हिन्दी क्षेत्र के राज्यों में राज–काज हिन्दी में होता है। अन्य राज्य सरकारें अपनी–अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं; महाराष्ट्र मराठी में, पंजाब पंजाबी में, गुजरात गुजराती में आदि।
  7. राजभाषा कोई भी भाषा हो सकती है, स्वभाषा या परभाषा। जैसे, मुग़ल शासक अकबर के समय से लेकर मैकाले के काल तक फ़ारसी राजभाषा तथा मैकाले के काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ती तक अंग्रेज़ी राजभाषा थी जो कि विदेशी भाषा थी। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया जो कि स्वभाषा है।
  8. राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है, जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता। 
अनुच्छेद 344 (1), 351, आठवीं अनुसूची के अनुसार 22 भाषाऐं है जिनके नाम इस प्रकार है:-
  1. असमिया
  2. बांग्ला
  3. गुजराती
  4. हिन्दी
  5. कन्नड़
  6. कश्मीरी
  7. कोंकणी
  8. मलयालम
  9. मणिपुरी
  10. मराठी
  11. नेपाली
  12. उड़िया
  13. पंजाबी
  14. संस्कृत
  15. सिंधी
  16. तमिल
  17. उर्दू
  18. तेलुगु
  19. बोडो
  20. डोगरी
  21. मैथिली
  22. संथाली 
संविधान के अनुच्छेद 344 में राष्ट्रपति को राजभाषा आयोग को गठित करने का अधिकार दिया गया है। राष्ट्रपति अपने इस अधिकार का प्रयोग प्रत्येक दस वर्ष की अवधि के पश्चात् करेंगे। राजभाषा आयोग में उन भाषाओं के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाएगा, जो संविधान की आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। इस प्रकार राजभाषा में 18 सदस्य होते हैं।  
राजभाषा आयोग का कर्तव्य निम्नलिखित विषयों पर राष्ट्रपति को सिफ़ारिश देना होता है—
  • संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा के अधिकारिक प्रयोग के विषय में,
  • संघ के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग के निर्बन्धन के विषय में,
  • उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में और संघ की तथा राज्य के अधिनियमों तथा उनके अधीन बनाये गये नियमों में प्रयोग की जाने वाली भाषा के विषय में,
  • संघ के किसी एक या अधिक उल्लिखित प्रयोजनों के लिए प्रयोग किये जाने वाले अंकों के विषय में,
  • संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच अथवा एक राज्य तथा दूसरे राज्यों के बीच पत्राचार की भाषा तथा उनके प्रयोग के विषय में, और
  • संघ की राजभाषा के बारे में या किसी अन्य विषय में, जो राष्ट्रपति आयोग को सौंपे।
राष्ट्रपति ने अपने इस अधिकार का प्रयोग करके 1955 में राजभाषा आयोग का गठन किया था। बी. जी. खेर को उस समय राजभाषा आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। इस आयोग ने 1956 में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी थी। 
 राजभाषा आयोग की सिफ़ारिशों पर विचार करने के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाता है। इस समिति में लोकसभा के 20 तथा राज्यसभा के 10 सदस्यों को शामिल किया जाता था। संसदीय समिति राजभाषा आयोग द्वारा की गयी सिफ़ारिशों का पुनरीक्षण करती है। 
संविधान में प्रावधान किया गया है कि जब तक संसद द्वारा क़ानून बनाकर अन्यथा प्रावधान न किया जाए, तब तक उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेज़ी होगी और संसद तथा राज्य विधानमण्डलों द्वारा पारित क़ानून अंग्रेज़ी में होंगे। किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की अनुमति से उच्च न्यायालय की कार्रवाई को राजभाषा में होने की अनुमति दे सकता है।

संघ की भाषा

अध्याय 2- संघ की भाषा के अनुसार
  • अनुच्छेद 343- संघ की राजभाषा
  1. संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा।
  2. इस संविधान के प्रारम्भ से 15 वर्ष की अवधि तक (अर्थात् 1965 तक) उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए पहले प्रयोग किया जाता रहा था।
परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
  1. संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात्, विधि के द्वारा
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी, जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ। अनुच्छेद 344— राजभाषा के सम्बन्ध में आयोग (5 वर्ष के उपरान्त राष्ट्रपति के द्वारा) और संसद की समिति (10 वर्ष के उपरान्त)

प्रादेशिक भाषाएँ

अध्याय 2- प्रादेशिक भाषाएँ के अनुसार
  • अनुच्छेद 345— राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ (प्रादेशिक भाषा/भाषाएँ या हिन्दी; ऐसी व्यवस्था होने तक अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी)
  • अनुच्छेद 346— एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा (संघ द्वारा तत्समय प्राधिकृत भाषा; आपसी क़रार होने पर दो राज्यों के बीच हिन्दी)
  • अनुच्छेद 347— किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जानेवाली भाषा के सम्बन्ध में विशेष उपबंध

सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय आदि की भाषा

अध्याय 3- सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय आदि की भाषा के अनुसार
  • अनुच्छेद 348— सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में और संसद व राज्य विधान मंडल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जानेवाली भाषा (उपबंध होने तक अंग्रेज़ी जारी)
  • अनुच्छेद 349— भाषा से सम्बन्धित कुछ विधियाँ अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया (राजभाषा सम्बन्धी कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व मंज़ूरी के बिना पेश नहीं की जा सकती और राष्ट्रपति भी आयोग की सिफ़ारिशों पर विचार करने के बाद ही मंज़ूरी दे सकेगा)

विशेष निदेश

अध्याय 2- विशेष निदेश के अनुसार
  • अनुच्छेद 350— व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जानेवाली भाषा (किसी भी भाषा में)
(क)भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ। (ख)भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति (राष्ट्रपति के द्वारा) अनुच्छेद 351— हिन्दी के विकास के लिए निदेश संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके, और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और 8वीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदावली को आत्मसात् करते हुए जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द–भण्डार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।  

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