Archive for category प्रेमाश्रयी शाखा के कवि

सबसे बड़ा पुरुषार्थ

मध्यकालीन कवियों ने प्रेम को सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना था। समाज में व्याप्त क्यारियों को ध्वस्त करने के लिए इन कवियों ने प्रेम की शरण ली थी। कबीर साहब ने इस समस्त काल में प्रेम को प्रतिष्ठा प्रदान किया एवं शास्र- ज्ञान को तिरस्कार किया।
मासि कागद छूओं नहिं,
कलम गहयों नहिं हाथ।
कबीर साहब पहले भारतीय व हिंदी कवि हैं, जो प्रेम की महिमा का बखान इस प्रकार करते हैं :-
पोथी पढ़ी- पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
कबीर के अनुसार ब्राह्मण और चंडाल की मंद- बुद्धि रखने वाला व्यक्ति परमात्मा की अनुभूति नहीं कर सकता है, जो व्यक्ति इंसान से प्रेम नहीं कर सकता, वह भगवान से प्रेम करने का सामर्थ्य नहीं हो सकता। जो व्यक्ति मनुष्य और मनुष्य में भेद करता है, वह मानव की महिमा को तिरस्कार करता है। वे कहते हैं मानव की महिमा अहम् बढ़ाने में नहीं है, वरन् विनीत बनने में है :-
प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय।
कबीर साहब ने प्रेम की जो परंपरा चलाई, वह बाद के सभी भारतीय कहीं- न- कहीं प्रभावित करता रहा है। इसी पथ पर चलकर रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान व्यक्तित्व के मालिक हुए।
कबीर भक्ति की साधना
कबीर के विचार से यह जीवन, संसार तथा उसके संपूर्ण सुख क्षणिक है। इनके पीछे भागना व्यर्थ में समय को गुजारना है। कबीर के अनुसार यह संसार दुखों का मूल है। सुख का वास्तविक मूल केवल आनंदस्वरुप राम है। इसकी कृपा के बिना, जन्म- मरण तथा तज्जन्य सांसारिक दुखों से मुक्ति नहीं मिल सकती। यही कारण है कि कबीर साहब राम की भक्ति पर अत्यधिक बल देते हैं और कहते हैं कि सब कुछ त्याग का राम का भजन करना चाहिए।
सरबु तिआगि भजु केवल राम कबीर कहते हैं कि राम या परमात्मा की भक्ति से ही माया का प्रभाव नष्ट हो सकता है तथा बिना हरि की भक्ति के कभी दुखों से मुक्ति नहीं हो सकती है।
बिनु हरि भगति न मुक्ति हाइ, इउ कहि रमें कबीर
परंतु कबीर की दृष्टि से भक्ति पूर्णतः निष्काम होनी चाहिए, वे हरि से धन, संतान कोई अन्य सांसारिक सुख माँगने के विरुद्ध हैं, वे तो भक्ति के द्वारा स्वर्ग भी नहीं माँगना चाहते हैं।
कबीर के राम से मुराद राजा दशरथ के पुत्र राजा राम नहीं हैं, बल्कि घट- घट में निवास करने वाले निगुर्ण, निरंजन, निराकार, सत्यस्वरुप एवं आनंदस्वरुप राम हैं। उन्हें परमात्मा, हरि, गोविंद, मुरारी, अल्लाह, खुदा किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। उन्हें ढ़ुढ़ने के लिए वन में भटकने की आवश्यकता नहीं है, भक्ति और युक्ति से उनका हृदय में साक्षात्कार किया जा सकता है। कबीर के मतानुसार आनंदस्वरुप राम और मनुष्य का आत्मा कोई दो भिन्न तत्व नहीं हैं :-
जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहरि भीतरि पानी।
फुटा कुंभ जल जलाहि समाना यहुतत कघैं गियानी।
कबीर कहते हैं :- साधक अपना अहंभाव खोकर सागर में बूँद की तरह परमात्मा से मिल सकता है :-
हंरत हंरत हे सखी, गया कबीर हिराई।
बूँद समानी समद में, सोकत हरि जाइ।।
कबीर के अनुसार मनुष्य को स्वयं यह विचार करना चाहिए कि दुख का वास्तविक कारण क्या है? सुख का मूल क्या है और उसको पाने का उपाय क्या है ?
ज्ञानदाता गुरु को कबीरदास अत्यंत पूज्य मानते हैं, वो तो गुरु और गोविंद में कोई अंतर नहीं मानते हैं :-
गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।
आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।
कबीर की भक्ति साधना में वेद शास्र के ज्ञान यज्ञ, तीर्थ, व्रत, मूर्ति पूजा आदि की कोई आवश्यकता नहीं है।

Leave a comment

प्रेमाश्रयी शाखा के कवि

निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के प्रमुख कवियों का परिचय
मलिक मुहम्मद जायसी, कुतबन, मंझन, उसमान, शेख नवी, कासिमशाह, नूर मुहम्मद, मुल्ला दाउद |
 
मलिक मुहम्मद जायसी
 
जायसी के जन्म और मृत्यु की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध रहीं है. ये हिन्दी में सूफ़ी काव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं. ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है. जायसी अपने समय के सिद्ध फ़कीरों में गिने जाते थे. अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था. जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से दो मिल दूर एक जंगल में रहा करते थे. वहीं उनकी मृत्यु हुई. काजी नसरूद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध में नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, अपनी याददाश्त में जायसी का मृत्युकाल 4 रजब 949 हिजरी लिखा है. यह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता.
ये काने और देखने में कुरूप थे. कहते हैं कि शेरशाह इनके रूप को देखकर हँसा था. इस पर यह बोले ‘मोहिका हँसेसि कि कोहरहि ?’ इनके समय में भी इनके शिष्य फ़कीर इनके बनाये भावपूर्ण दोहे, चौपाइयाँ गाते फिरते थे. इन्होंने तीन पुस्तकें लिखी – एक तो प्रसिद्ध ‘पदमावत’, दूसरी ‘अख़रावट’, तीसरी ‘आख़िरी क़लाम’. कहते हैं कि एक नवोपलब्ध काव्य ‘कन्हावत’ भी इनकी रचना है, किन्तु कन्हावत का पाठ प्रामाणिक नहीं लगता. अख़रावट में देवनागरी वर्णमाला के एक अक्षर को लेकर सिद्धांत संबंधी तत्वों से भरी चौपाइयाँ कही गई हैं. इस छोटी सी पुस्तक में ईश्वर, सृष्टि, जीव, ईश्वर प्रेम आदि विषयों पर विचार प्रकट किए गए हैं. आख़िरी क़लाम में कयामत का वर्णन है. जायसी की अक्षत कीर्ति का आधार है पदमावत, जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और ‘प्रेम की पीर’ से भरा हुआ था. क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्मपक्ष में, दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है.
कृतियाँ — 1. पदमावत  2. अख़रावट  3. आख़िरी क़लाम
 
कुतबन
 
ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे. अत: इनका समय विक्रम सोलहवीं शताब्दी का मध्यभाग (सन् 1493) था. इन्होंने ‘मृगावती’ नाम की एक कहानी चौपाई दोहे के क्रम से सन् 909 हिजरी सन् 1500 ई. में लिखी जिसमें चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेम कथा का वर्णन है. इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है. बीच-बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास है.
कृतियाँ — 1. मृगावती
 
मंझन
 
इनके संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है. केवल इनकी रची ‘मधुमालती’ की एक खंडित प्रति मिली है जिसमें इनकी कोमल कल्पना और स्निग्धसहृदयता का पता लगता है. मंझन ने सन् 1545 ई. में मधुमालती की रचना की. मृगावती के समान मधुमालती में भी पाँच चौपाइयों के उपरांत एक दोहे का क्रम रखा गया. पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद् है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और हृदयग्राही है. आध्यात्मिक प्रेम भाव की व्यंजना के लिए प्रकृतियाँ के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है.
ये जायसी के परवर्ती थे. मधुमालती में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में पहुँचा देती हैं और वहीं नायक नायिका को देखता है. इसमें मनोहर और मधुमालती की प्रेमकथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की भी प्रेमकथा चलती है. इसमें प्रेम का बहुत उच्च आदर्श सामने रखा गया है. सूफ़ी काव्यों में नायक की प्राय: दो पत्नियाँ होती हैं, किन्तु इसमें मनोहर अपने द्वारा उपकृत प्रेमा से बहन का संबंध स्थापित करता है. इसमें जन्म-जन्मांतर के बीच प्रेम की अखंडता प्रकट की गई है. इस दृष्टि से इसमें भारतीय पुनर्जन्मवाद की बात कही गई है. इस्लाम पुनर्जन्मवाद नहीं मानता. लोक के वर्णन द्वारा अलौकिक सत्ता का संकेत सभी सूफ़ी काव्यों के समान इसमें भी पाया जाता है.
जैन कवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित में सन् 1603 के आसपास की अपनी इश्कबाजीवाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट बाजार में जाना छोड़, घर में पड़े-पड़े ‘मृगावती’ और ‘मधुमालती’ नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था:-
 
तब घर में बैठे रहैं, नाहिंन हाट बाजार I
मधुमालती, मृगावती पोथी दोय उचार II
 
कृतियाँ — 1. मधुमालती
 
उसमान
 
ये जहाँगीर के समय में वर्तमान थे और गाजीपुर के रहनेवाले थे. इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे. ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजीबाबा के शिष्य थे. उसमान ने सन् 1613 ई. में ‘चित्रावली’ नाम की पुस्तक लिखी. पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफों की बादशाह जहाँगीर की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजीबाबा की प्रशंसा लिखी है.
कवि ने ‘योगी ढूँढन खंड’ में काबुल, बदख्शाँ, खुरासान, रूस, साम, मिश्र, इस्तबोल, गुजरात, सिंहलद्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है. सबसे विलक्षण बात है जोगियों का अँगरेजों के द्वीप में पहुँचना :
 
वलंदप देखा अँगरेजा I तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा II
ऊँच नीच धन संपति हेरा I मद बराह भोजन जिन्ह केरा II
कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है. जो जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे हैं उस विषयों पर उसमान ने भी कुछ कहा है. कहीं-कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही हैं. पर विशेषता यह है कि कहानी बिल्कुल कवि की कल्पित है.
 
कृतियाँ  — 1. चित्रावली
 
शेख नवी
 
ये जौनपुर जिले में दोसपुर के पास मऊ नामक स्थान के रहने वाले थे और सन् 1619 में जहाँगीर के समय में वर्तमान थे. इन्होंने ‘ज्ञानदीप’ नामक एक आख्यान काव्य लिखा, जिसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की कथा है.
कृतियाँ — 1. ज्ञानदीप
 
कासिमशाह
 
ये दरियाबाद (बाराबंकी) के रहने वाले थे और सन् 1731 के लगभग वर्तमान थे. इन्होंने ‘हंस जवाहिर’ नाम की कहानी लिखी, जिसमें राजा हंस और रानी जवाहिर की कथा है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार: इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है. इन्होंने जगह जगह जायसी की पदावली तक ली है, पर प्रौढ़ता नहीं है.
कृतियाँ — 1. हंस जवाहिर
 
नूर मुहम्मद
 
ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के समय में थे और ‘सबरहद’ नामक स्थान के रहनेवाले थे जो जौनपुर जिले में जौनपुर आज़मगढ़ की सरहद पर है. पीछे सबरहद से ये अपनी ससुराल भादो (अजमगढ़) चले गये. इनके श्वसुर शमसुद्दीन को और कोई वारिस न था इससे वे ससुराल ही में रहने लगे.
नूर मुहम्मद फ़ारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिन्दी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफ़ी कवियों से अधिक था. फ़ारसी में इन्होंने एक दीवान के अतिरिक्त ‘रौजतुल हकायक’ इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थीं जो असावधानी के कारण नष्ट हो गईं.
इन्होंने सन् 1744 ई. में ‘इंद्रावती’ नामक एक सुंदर आख्यान काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेमकहानी है.
इनका एक और ग्रंथ फ़ारसी अक्षरों में लिखा मिला है, जिसका नाम है ‘अनुराग बाँसुरी’. यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है. पहली बात तो इसकी भाषा सूफ़ी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृतगर्भित है. दूसरी बात है हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव.|
 
कृतियाँ  — 1. इंद्रावती (सन् 1744 ई.)  2. अनुराग बाँसुरी (सन् 1764 ई.)
 
इसके अतिरिक्त प्रेमाख्यान काव्य की प्रमुख कॄतियों मे मुल्ला दाउद कॄत “चान्दायन” (१३७९) नायक लोर और चन्दा की प्रेम कथा प्रमुख है।

Leave a comment